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मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने की बातें तो कई बार हुई है, लेकिन वह सारी कवायद ब्यूरोक्रेसी में ही उलझ कर रह गई है। इसी बीच उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने लखनऊ और गौतमबुद्ध नगर यानी नोएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने के लिए फैसला कर लिया।

देश में अभी 15 राज्यों के 71 शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू है। उत्तरप्रदेश में करीब 50 वर्षों से पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने पर चर्चा चल रही थी। सरकार का तर्क है कि इसे लागू करने से लखनऊ और नोएडा की कानून और व्यवस्था की स्थिति अच्छी होगी। अपराधियों पर नियंत्रण करना आसान होगा और फैसलों में तेजी आएगी। वास्तव में पुलिस कमिश्नर प्रणाली अंग्रेजों के ज़माने की देन है। आजादी के बाद भी मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में यही प्रणाली लागू थी।

मध्यप्रदेश में भी इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली के पक्ष में अनेक तर्क दिए जाते है। कई बार ऐसा लगा था कि अब इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति होने ही वाली है, लेकिन वह टलती रही। पुलिस कमिश्नर की जगह सीनियर सुप्रिंटेंडेंट ऑफ पुलिस (एसएसपी) के पद बनाए और खत्म किए गए।

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐसे कई बार संकेत दिए थे कि उनकी सरकार इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लेकर बहुत गंभीर है। इस मुद्दे पर आईएएस और आईपीएस अफसरों में भी गहरा चिंतन मनन होता रहा है। शहरी क्षेत्र के लिए अलग से डीआईजी की व्यवस्था भी शुरू की गई, लेकिन जितनी अपेक्षा थी, यह व्यवस्था उतनी कारगर साबित नहीं हुई। आईएएस अधिकारियों का एक वर्ग पुलिस कमिश्नर प्रणाली के विरोध में खड़ा था, तो आईपीएस ऑफिसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष इसे स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स से जोड़ते हुए ज़रूरत करार देते थे।

इंदौर और भोपाल को पुलिस कमिश्नर प्रणाली के अंतर्गत लाने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि ये ही दो शहर है, जहां पुलिस को सबसे ज्यादा सक्रिय रहने की ज़रूरत है। आबादी के मान से इंदौर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर है और भोपाल प्रदेश की राजधानी होने के साथ ही सबसे तेजी से बढ़ता व्यावसायिक शहर भी है। 2017 में पुलिस की मदद के लिए डाॅयल 100 पर सबसे ज्यादा फोन कॉल भोपाल और इंदौर से भी मिले थे। इस वर्ष भोपाल में 1 लाख 33 हजार 180 और इंदौर के 1 लाख 15 हजार 421 लोगों ने पुलिस से मदद की गुहार लगाई थी। महिलाओं की छेड़छाड़ के मामले इनमें प्रमुख थे। इसके अलावा वाहन चोरी, ट्रैफिक जाम, शोर-गुल आदि भी पुलिस को याद करने के कारण रहे।

एक और तर्क यह दिया गया कि भोपाल और इंदौर में वीवीआईपी के कार्यक्रम सर्वाधिक होते हैं। 2017 में इन दो शहरों में करीब 450 कार्यक्रम वीवीआईपी लोगों के रहे। प्रदेश में कुल जितने वाहन हैं, उनका 28 प्रतिशत केवल इंदौर और भोपाल में हैं। सायबर क्राइम के मामले में भी इंदौर और भोपाल सबसे आगे रहा है। 64 प्रतिशत सायबर क्राइम भोपाल और इंदौर में दर्ज किए गए है। पूरे प्रदेश में जितने आंदोलन होते हैं और जुलूस निकलते हैं, उनमें सबसे अधिक प्रदर्शन भोपाल और इंदौर में ही होते हैं। पूरे प्रदेश की आबादी का केवल 6 प्रतिशत ही इन शहरों में रहता है, लेकिन इन दोनों शहरों में ही पुलिस की आवश्यकता सबसे ज्यादा महसूस की जाती है।

पिछली बैठकों में यहां तक चर्चा हुई थी कि इंदौर और भोपाल में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक यानी एडीजी के स्तर के किसी अधिकारी को पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकता है। उनके नीचे दो ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर बनाए जा सकते हैं, जो आईजी स्तर के हो। फिर उनके नीचे डीआईजी स्तर के अधिकारियों को एडिशनल पुलिस कमिश्नर और उनके नीचे जुनूयर आईपीएस या सीनियर एसपीएस अधिकारियों को अस्सिटेंट पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकता है।

पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हुई, तो उससे पुलिस के अधिकार बढ़ जाएंगे और वह ज्यादा शक्तिशाली हो जाएगी। कानून और व्यवस्ता से जुड़े तमाम मुद्दों पर पुलिस कमिश्नर खुद फैसला ले सकेंगे। जिला मजिस्ट्रेट यानी डीएम जो कि आमतौर पर कलेक्टर होता है और जिसके पास जिले से जुड़े लगभग सभी मामले विचाराधीन होते हैं, आमतौर पर कानून व्यवस्था संबंधी फैसले तत्काल नहीं ले पाते। कई बार फाइले डीएम के पास अटक जाती है। पुलिस कमिश्नर प्रणाली में डीएम के कई पावर सीधे पुलिस कमिश्नर को मिल जाते हैं और एडीएम तथा एसडीएम को दिए गए एक्जीक्यूटिव मजिस्टेरियल पाॅवर भी पुलिस को मिल जाते हैं। शांति भंग होने की आशंका में किसी को निरूद्ध करने, किसी को गुंडा एक्ट में गिरफ्तार करने, रासुका लगाने आदि के मामले में पुलिस खुद सक्षम हो जाती है।

डीएम की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। कानूनी भाषा में कहे, तो सीआरपीसी के मजिस्ट्रेट वाले पावर जो जिला प्रशासन के पास होते हैं, वे पुलिस कमिश्नर के पास चले जाते हैं। सीआरपीसी में 107-16 धारा 144, 109, 110, 145 के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सीधे पुलिस के पास आ जाती है। धरना या प्रदर्शन की अनुमति देना या ना देना पुलिस तय करती है। दंगा होने की स्थिति में लाठीचार्ज किया जाए या नहीं, किया जाए तो कितना यह भी पुलिस तय करती है। आंसू गैस छोड़ी जाए या कर्फ्यू लगाया जाए या गोली चालन किया जाए यह सब पुलिस के अधकार क्षेत्र में होता है। वर्तमान में न्यायिक दण्डाधिकारी ही इस बारे में फैसला लेते है और पुलिस उसका पालन करती है। इस तरह कानून और व्यवस्था संभालने के लिए पुलिस कमिश्नर प्रणाली त्वरित निर्णय करने में सक्षम होती है। यहां तक कि अतिक्रमण रोकने के अभियानों में भी पुलिस कमिश्नर सीधे आदेश दे सकता है और नगर निगम को उस पर अमल करना होता है।

आईपीएस अधिकारियों का मानना है कि ये सारे अधिकार पुलिस कमिश्नर प्रणाली में पुलिस के हाथों नहीं सौंपे जाने चाहिए, क्योंकि कमिश्नर प्रणाली में इसके साथ ही साथ होटलों के लाइसेंस, बार के लाइसेंस और हथियार देने के लाइसेंस के अधिकार भी पुलिस के ही हाथ में होते हैं। हत्या-मारपीट, बलवा, आगज़नी आदि तो ठीक है, लेकिन ज़मीनों के विवाद से शुरू होने वाले अधिकांश मामले न्यायिक दण्डाधिकारियों के कार्य क्षेत्र में रहने से उन पर बेहतर निर्णय हो सकते हैं।

पुलिस कमिश्नर प्रणाली के खिलाफ जो बात सबसे ज्यादा उछलती है, वह यह है कि अगर पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हुई, तो पुलिस निरंकुश हो जाएगी। पहले ही पुलिस पर भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप कम नहीं लगते। अगर पुलिस को ही बहुतेरे अधिकार दे दिए जाए, तो उससे व्यवस्था में किसी गलत व्यक्ति के आने पर अंकुश लगाना कठिन हो जाएगा। हो सकता है कि इससे पुलिस में भ्रष्टाचार के मामले और बढ़ जाएंगे। पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह कई वर्षों से पुलिस कमिश्नर प्रणाली के पक्ष में अभियान चला रहे हैं।

उत्तरप्रदेश सरकार ने प्रकाश सिंह के नेतृत्व में एक कमेटी भी बनाई थी, उसके बाद एक और कमेटी भी बनी, जिसके प्रमुख सुलखान सिंह थे। इन दोनों अधिकारियों ने अपने अनुभवों के आधार पर सलाह दी थी कि पुलिस कमिश्नर का पद उस व्यक्ति को दिया जाए, जिसका 15 से 20 वर्षों तक का बेदाग कार्य करने का अनुभव हो। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, हैदराबाद जैसे शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली प्रभावशाली ढंग से चल ही रही है। पुलिस कमिश्नर प्रणाली के विरोध में एक लॉबी हमेशा यही कहती है कि पुलिस अधिकारियों का संपर्क आम जनता से नहीं होता। वे जनता की भावनाओं को ठीक से समझ पाने में सक्षम नहीं हैं। डीएम, एडीएम, एसडीएम आदि अधिकारी जनता के ज्यादा करीब है और नेताओं के भी। ये लोग समाज के हर वर्ग से जुड़े होते हैं। समाज के हर वर्ग के लोग इनके पास आते हैं और ये सबको यथायोग्य ढंग से ट्रीट करते हैं। पुलिस के पास अधिकार केंद्रित होने से यह पूरा ढांचा भी चरमरा जाएगा। 1861 में बने पुलिस अधिनियम के तहत लागू पुलिस प्रणाली में सुधार तो होने चाहिए, लेकिन ऐसे नहीं कि सुधार के बजाय उसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। अगर पुलिस कमिश्नर प्रणाली इतनी ही अच्छी है, तो उसे 2 शहरों के बजाय पूरे प्रदेश में ही लागू क्यों नहीं कर देते।

उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ द्वारा शुरू किया गया यह प्रयोग अभी दो ही शहरों में लागू होगा, लेकिन इसकी कवायद पहले कई बार हो चुकी है। 1976-77 में प्रयोग के तौर पर कानपुर में कमिश्नर प्रणाली लागू करने के प्रयास किए गए थे, लेकिन तब काफी सोच-विचार के बाद उसे रद्द कर दिया गया। 2009 में मायावती की सरकार ने भी नोएडा और एनसीआर के एक हिस्से में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने की तैयारी की थी। पूरा खाका भी तैयार हो चुका था, लेकिन फिर आईएएस लॉबी ने उसमें अड़ंगे अड़ा दिए। 27 दिसम्बर 2018 को पुलिस सप्ताह के दौरान उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल राम नाईक ने भी योगी सरकार को लखनऊ, कानपुर, गाजियाबाद सहित कई शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने की सिफारिश की थी।

संयोग ही है कि अब उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती इस प्रयोग को अनावश्यक बता रही है और कह रही है कि इससे भ्रष्टाचार बहुत बढ़ेगा। हमने काफी सोच विचार के बाद यह फैसला किया है। योगी सरकार के प्रतिनिधि का कहना है कि इस प्रणाली के लागू होने से अपराधियों, माफिया सरगनाओं और अपराध को बढ़ावा देने वाली के दिन लद गए है। दंगा करने वालों के बुरे दिन शुरू हो गए है, क्योंकि पुलिस का सिंगल विंडो सिस्टम चालू हो गया है। पुलिस अधिकारियों की फाइलें अब गुंडों को जिलाबदर करवाने के लिए एक से दूसरी टेबल पर भटकेंगी नहीं। पुलिस चाहेगी, तो खुद ही अपराधियों और सफेदपोश बदमाशों को हथियारों के लाइसेंस कैंसल कर देगी और 151, 107, 116 धाराओं में गिरफ्तार बदमाशों को सीधे जेल भेज देगी। नौकरशाही का मकड़जाल अब खत्म हो जाएगा। गुजरात के अहमदाबाद, राजकोट और वडोदरा में भी पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू है और वहां कानून और व्यवस्था की स्थिति काफी अच्छी है।

मध्यप्रदेश में 5 महीने पहले कमलनाथ सरकार ने पुलिस कमिश्नर सिस्टम के बारे में कवायद शुरू की थी। चर्चा थी कि 15 अगस्त के अपने भाषण में मुख्यमंत्री इसकी घोषणा कर देंगे, लेकिन उसके पहले ही अधिकारियों की एक लॉबी इसे रुकवाने में सफल हो गई थी । अधिकारियों का एक दल मुख्यमंत्री से भी मिला था और उन्हें कहा था कि इससे पुलिस पर और ज्यादा सवाल उठाए जाएंगे। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी पुलिस कमिश्नर प्रणाली के पक्ष में अपनी राय रख चुके थे। उत्तरप्रदेश में इस व्यवस्था के लागू होने के बाद मध्यप्रदेश में भी सुगबुगाहट फिर तेज़ हो गई है। आईपीएस और आईएएस लॉबी के अधिकारी मुख्यमंत्री की सहमति बनाने के लिए जुटे है। आईपीएस अधिकारियों के एक वर्ग को आशा है कि मध्यप्रदेश भी इस दिशा में आगे बढ़ेगा और उसके परिणाम सकारात्मक होंगे।

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