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 film waqt

"जो भी है, बस यही एक पल है"
हर शुक्रवार फिल्म देखता हूँ, पर बीते कुछ शुक्रवार फ़िल्म देखने के बाद भी कुछ लिखने का मन नहीं हुआ!
मन उन पुरानी कुछ फिल्मों पर लौट गया, जब न तो VFX थे, न Dolby साउंड; न 3D-4D तकनीक थी, न Bigpix स्क्रीन, न ATMOS, न तमाम तामझाम! अब फ़िल्म बनाने और देखने-दिखाने का सलीका बदल गया है; पर लगता है फिल्मों की आत्मा कहीं भटक गई है!

याद आता है वह दौर, जब हीरोइन का एक पॉज़ दिल को चीर कर रख देता था, एक्टर आंखों से वह कह देता था जो किसी भाषा का मोहताज नहीं! गानों की एक लाइन पूरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बयां कर देती थी! बरसों तक गाने की लाइन दिमाग़ और दिल में उतरी रहती थी।....और हां, अब तक उतरी हुई है!

याद आता है वक़्त फ़िल्म में साहिर लुधियानवी का लिखा गाना - "आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू; जो भी है, बस यही एक पल है!"
हज़ारों दार्शनिक जीवन भर जिस खोज में लगे रहे, वह यही तो है- "जो भी है, बस यही एक पल है!" साहिर के इस गीत पर 100 ऑस्कर भी कम होंगे!
'वक्त' 58 साल पहले 1965 में रिलीज़ हुई थी, निर्देशक थे यश चोपड़ा! रवि का शानदार संगीत, आशा भोसले का खनकदार गायन, एरिका लाल पर फिल्माया पार्टी का गीत! सच कहूँ तो ये गाना फ़िल्म में नहीं था, बल्कि पूरी फिल्म ही इस गाने में थी! उससे बढ़कर बात यह कि यह गाना पूरी ज़िन्दगी का दर्शन है!
जीवन का फ़लसफ़ा !
आगे भी जाने न तू! पीछे भी जाने न तू !! जो भी है बस यही एक पल है!!!
भविष्य किसी को नहीं पता, अतीत हाथ से छूट गया है। अब वर्तमान ही है तुम्हारे पास! वर्तमान में भी यह साल, महीना, दिन, घंटा नहीं; बस यही एक पल!
एक पल!!
किसी भी एक फिल्मी गाने का इससे सजीव, एक्शनपैक्ड फिल्मांकन कभी हुआ है क्या? पूरे गाने में रोमांस या मोहब्बत का कोई जिक्र तक नहीं, लेकिन गाना कहता है कि आपको जीवन का हर पल पकड़ना चाहिए!
यह मल्टीस्टारर फ़िल्म थी और फ़िल्म में कथानक को आगे बढ़ाने के लिए गाने के दौरान, बहुत सारी महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं: साधना और सुनील दत्त एक साथ रोमांटिक मूड में आ जाते हैं, खलनायक रहमान राज कुमार को शशिकला का हीरे का हार चुराने का आदेश देता हैं, शर्मिला टैगोर शशि कपूर का ध्यान आकर्षित करती हैं और शशि कपूर को जल्दी पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए। और सबसे बड़ी बात यह कि राज कुमार का मदन पुरी के साथ झगड़ा हो जाता है मामला हत्या तक जा पहुंचता है!
फ़िल्म की कहानी में पेंच ही पेंच हैं, जैसे हम सब की ज़िन्दगी में हैं! (कहानी का चर्चा फिर कभी, वैसे यह सलीम-जावेद के अब्बा हुजूर के जमाने की, हिन्दी की शायद पहली फ़िल्म है जिसमें परिवार के बिछड़ने और फिर मिलने की कहानियां हैं)
अतीत बीत चुका है और भविष्य अज्ञात! ऐसे में हमारे पास क्या है?
साहिर कहते हैं- बस यही एक पल!
आगे साहिर ने लिखा-
अनजाने सायों का राहों में डेरा है
अनदेखी बाहों ने हम सबको घेरा है
ये पल उजाला है बाक़ी अंधेरा है
ये पल गँवाना न
ये पल ही तेरा है
जीनेवाले सोच ले यही वक़्त है कर ले पूरी आरज़ू
आगे भी जाने न तू,
पीछे भी जाने न तू
इस पल की जलवों ने महफ़िल संवारी है
इस पल की गर्मी ने धड़कन उभारी है
इस पल के होने से दुनिया हमारी है
ये पल जो देखो तो सदियों पे वारि है
जीनेवाले सोच ले यही वक़्त है कर ले पूरी आरज़ू
आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू
इस पल के साए में अपना ठिकाना है
इस पल की आगे की हर शय फ़साना है
कल किसने देखा है कल किसने जाना है
इस पल से पाएगा जो तुझको पाना है
जीनेवाले सोच ले यही वक़्त है कर ले पूरी आरज़ू
आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू
आपको भी ऐसे गानों की लाइन याद आ रही होंगी! कौन सी लाइन है?
अगले शुक्रवार ऐसे ही किसी और गाने की बात करेंगे!
-प्रकाश हिन्दुस्तानी 

14.4.2023 
#onelinephilosophy
#PhilosophyInOneLine
#एक_लाइन_का_फ़लसफ़ा

 

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