"मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया"
पिछले सप्ताह मैंने साहिर लुधियानवी के एक गाने की बात की थी, जिसकी एक-एक लाइन में जिंदगी का पूरा दर्शन था - जो भी है, बस यही एक पल है!संयोग ही है कि आज जिस गाने की चर्चा कर रहा हूँ वह भी साहिर लुधियानवी का लिखा है। 1961 में आई फ़िल्म हम दोनों का गाना है यह :मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
इसी में आगे एक लाइन है- बर्बादियों का सोग (दुःख, अफसोस) मनाना फिजूल था, बर्बादियों का जश्न मनाता चला गयासोग यानी दुःख! अफसोस! इसीलिए हीरो गीत गाते हुए धुएं में हर फ़िक्र को उड़ाने की बात करता है, जिससे मेरी असहमति है क्योंकि धुंआ उड़ाना सेहत के लिए हानिकारक है।
मोहम्मद रफी के गाये इस गाने का दर्शन जीवन की कठिनाइयों से निपटने में मदद करता है। देव आनंद का किरदार अपनी सारी चिंताओं को धुएं के रूप में उड़ा देने का गीत गाता है। दुःख, सुख, शोक, दर्द, आनंद, मस्ती - हर हाल में एक समान व्यवहार करना।
कहते हैं न, जो अपने में मस्त है, उसके पास समस्त है!
1961 में आई विजय आनन्द निर्देशित इस फिल्म में देव आनंद ने दोहरी भूमिका की थी। दोनों ही भूमिकाओं में देव आनंद ने जबरदस्त अभिनय किया था। इस फिल्म में कहानी एक ऐसे मोड़ पर आ जाती है जब हीरो के सामने परेशानियां ही परेशानियां होती हैं।
फ़िल्म में महेश आनन्द और मेजर वर्मा (दोनों रोल देव आनंद के अदा किए थे) में कई चीजें समान हैं। दोनों सेना में हैं; दोनों अमीर परिवारों से हैं; और दोनों एक जैसे दिखते हैं। जब मेजर वर्मा लापता हो जाता है, तो उसे युद्ध के दौरान मृत माना जाता है। महेश को इस खबर को उसके परिवार तक पहुँचाने के लिए कहा जाता है। आगमन पर, उसे मेजर वर्मा समझ लिया जाता है। वह वर्मा की माँ श्रीमती वर्मा (ललिता पवार) के साथ-साथ उसकी बीमार पत्नी रूमा (नन्दा) से मिलता है। वर्मा की मौत की खबर को वह नहीं बता पाता है और वर्मा के रूप में ही रहने लगता है।
उसका घर में स्वागत किया जाता है। इससे महेश के जीवन में उसकी प्रेमिका मीता (साधना) के रूप में जटिलताएँ पैदा होती हैं। उसे लगता है कि महेश अब उससे प्यार नहीं करता। तब रूमा को पता चलता है कि उसका पति किसी दूसरी महिला के प्यार करता है। महेश अपने आप को गहरे संकट में पाता है, क्योंकि वह किसी को भी कुछ बताने करने में असमर्थ है। उसे अपने जीवन और परिवार में वापस जाने में केवल मेजर वर्मा ही है जो उसकी मदद कर सकता है।
'हम दोनों' फिल्म में इस गाने को फिल्माते वक्त देव आनंद सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाते हैं। उन्हें अपनी प्रेयसी की याद आती है और वे सिगरेट को पानी में फेंक देते हैं तभी पानी में उन्हें अपनी प्रेयसी का प्रतिबिंब नजर आता है। इस गाने को लेकर इस फिल्म की बहुत आलोचना की गई और यह भी कहा गया कि इससे धूम्रपान करने वालों को बढ़ावा मिलेगा।
यह गाना जिंदगी का साथ देने के साथ ही बर्बादियों का सोग (दुःख) मनाने को फिजूल बताता है ! गाने की आगे की लाइन कहती है कि जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया और उसके आगे की लाइन बताती है कि गम और खुशी का फर्क खत्म हो जाए, उस जगह अपने दिल को ले आना! जाहिर है यह संतत्व प्राप्ति जैसा ही है।
पूरा गाना इस तरह था। संगीतकार थे जयदेव :
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया ।
बरबादियों का सोग मानना फ़िज़ूल था,
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया ।
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया ।
ग़म और ख़ुशी में फर्क न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया ।
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया ।
-प्रकाश हिन्दुस्तानी
21.4.2023
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