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''संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है..."

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फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (14).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :

बी. आर. चोपड़ा की फिल्म 'धुंध' 1973 में आई थी। एक मर्डर-मिस्ट्री। अगाथा क्रिस्टी के नाटक - 'द अनएक्सपेक्टेड गेस्ट' पर आधारित! फिल्म की शुरूआत ही एक गाने से होती है। गहरी धुंध है। परदे पर टाइटल्स आ रहे हैं। बैकग्राउंड में गाने की आवाज़ आ रही है। जाहिर है कि इस गाने का फिल्म में बहुत ज़्यादा महत्व है। यह गाना फिल्म की भूमिका है। दर्शकों में फिल्म के प्रति उत्सुकता बने और वे कुर्सी से चिपके रहें, यही लक्ष्य। फिल्म के टाइटल्स ख़त्म होते हैं। गाना ख़त्म होता है।

गाने के बोल थे :
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है

हज़ारों साल से मनुष्य जानना चाहता है कि संसार में लोग कहां से आते हैं? कहां जाते हैं? दार्शनिकों के पास कोई जवाब नहीं। धर्म ग्रंथों के अपने फलसफे हैं। इसी शाश्वत बात को साहिर लुधियानवी ने आसान लफ़्ज़ों में कह दिया है :

ये राह कहां से है, ये राह कहां तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है

कितनी आसानी से कह दिया कि जीवन की राह कितनी लम्बी है? कहां तक जाती है? हम सब इसके राही हैं, पर इसे किसने समझा है? किसने जाना है?

साहिर लुधियानवी के लगभग सभी गानों में जीवन का दर्शन सरलतम शब्दों में है। उन्हें संगीत की भी भरपूर समझ थी। अपने गीतों में वे अक्सर 'बहर' का ध्यान रखते थे, जिससे गीत की लयात्मकता बढ़ जाती थी। वे आसान शब्दों का चयन करते थे और हर बात ऐसी जो तीर की मानिंद सीधे उतर जाती थी।

इस गाने के बोल में आगे लिखा है कि जीवन का सारा खेल फ़क़त एक लम्हे का है। अगले ही पल क्या हो जाए, क्या पता? पलक झपकते ही क्या हो जाएगा, किसे मालूम? जब तक जीवन है, हर चीज़ सुन्दर लगाती है, शाश्वत लगती है, सुहानी लगती है। तभी तो उन्होंने लिखा :
इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है

सारा का सारा खेल पलक झपकने भर का है! हम सब अपने जीवन में अलग-अलग तजुर्बे पाते हैं। हर घटना/दुर्घटना हमें शिक्षा दे जाती है।

मैंने एक ऑटो रिक्शा के पीछे लिखा देखा - ''जो बना है, वो फ़ना है।'' कितनी गज़ब की बात! ऑटो रिक्शा के मालिक को यह कहां से सूझी होगी? मैं कई दिनों तक सोचता रहा। यही सत्य है और यही शाश्वत भी है। जो कुछ भी भौतिक रूप से बना है --घर, बंगला, कोठी, कार, जूता, कपड़ा, कंप्यूटर, जहाज, रॉकेट ... गरज ये कि जो कुछ भी बना है वह नश्वर है! उसका फ़ना होना ही अंतिम सत्य है। फिर वह चाहे इंसान हो जानवर, परिंदे हों या जलचर.... अंत उनका भी समाप्त होना ही है। अब और आगे बढ़ें तो कुछ अदृश्य चीजें भी बनी हैं - ये बड़े बड़े पद, कलेक्टरी, मैनेजरी, रिश्तेदारियां, दोस्ती, सात जनम के बंधन... ये भी कभी न कभी ख़त्म होने ही हैं। शरीर बना है, नश्वर हैं, जब शरीर नहीं होगा तब कहाँ रिश्तेदारी होगी? दोस्ती होगी? ये पद और रिश्ते भी बनाये गए हैं, इसलिए इनका समाप्त होना भी शाश्वत है।

बड़े-बुजुर्ग कहते हैं -जो भरा, वो झरा ! साफ़ है कि झरने के पहले की अवस्था है भरने की। नई-नई पत्तियों से पेड़ भरा, और फिर मौसम आने पर झर गया। कलियाँ लगीं, फूल बनीं, फल बन कर भरीं और फिर झर गई। यही संसार का नियम है।

कबीर ने लिखा था :
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात।।
... और इसी बात को साहिर ने इस गाने में यों लिखा है :
क्या जाने कोई किस पर, किस मोड़ पर क्या बीते
इस राह में ऐ राही, हर मोड़ बहाना है

आगे साहिर ने ईश्वर की तुलना एक ऐसे खिलाड़ी से की है जो हम जैसे खिलौने बनाता और तोड़ता है। वह खिलाड़ी न जाने कितने युगों तक यह खेल खेलता रहेगा। फिर कभी क़यामत होगी और फिर एक नया खेल शुरू होगा।

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है

धुंध अपने ज़माने की सुपर-डुपर हिट फिल्म थी। उसके जैसी मर्डर मिस्ट्री फ़िल्में कम ही बन सकीं। पचास साल पहले वह तकनीकी कौशल नहीं था। फिल्म सामान्य टू डी ही थी, लेकिन निर्देशक ने उसमें थ्री डी जैसे इफेक्ट डाले थे। डैनी को इस फिल्म ने स्थापित खलनायक बनाया। फिल्म के एक सीन में वे कैमरे के सामने तश्तरियां फेंकते हैं तो दर्शकों को लगता था कि तश्तरियां उन पर आ रही हैं! इस फिल्म में जीनत अमान, नवीन निश्चल, संजय खान, जयश्री तलपड़े, मदन पुरी, देवेन वर्मा और अशोक कुमार आदि थे।

साहिर लुधियानवी को फ़क़त 59 साल ही मिले। जीवन के अनुभवों ने उन्हें दार्शनिक बना दिया था। तभी तो वे लिख पाये : 'मैं पल दो पल का शायर हूँ.... ',
'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों....' , 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया....' , 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.... ' और 'ऐ मेरी जोहरा जबी, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवां'

इसके साथ ही साहिर की शायरी में विद्रोह, रूमानियत, समर्पण भाव और रोमैंटिज़्म भी रहा। उन्होंने भजन और देशप्रेम के गाने भी लिखे और खूब लिखे। वे कई उर्दू पत्रिकाओं के संपादक रहे। वे पहले गीतकार थे, जिनका नाम रेकार्ड कंपनियां कवर पर छापती थीं। अमृता प्रीतम उन पर फ़िदा थीं, शादी करना चाहती थीं। धर्म और हैसियत आड़े आई। गायिका सुधा मल्होत्रा से भी मोहब्बत की हद तक नजदीकियां रहीं, पर ब्याह नहीं हुआ किसी से भी।

महेंद्र कपूर का यह गीत (जो वास्तव में एक ग़ज़ल है) राग भूपाली में है, जो रात्रि के पहर का राग है। इस राग को कर्नाटक संगीत में मोहन राग कहते हैं। इस फिल्म के संगीतकार रवि थे, जो गायक बनने फ़िल्मी दुनिया में आये थे और उन्होंने जोगी, पड़ोसी, उम्मीद, एक फूल दो माली आदि फिल्मों में गाने भी गाये थे।

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साहिर लुधियानवी का लिखा पूरा गीत :

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है

ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है

इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है

क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है

फिल्म : धुंध (1973 )
गीतकार : अब्दुल हयी 'साहिर' लुधियानवी
गायक : महेंद्र कपूर
संगीतकार : रवि शंकर शर्मा
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--प्रकाश हिन्दुस्तानी
14-7-2023
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