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फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (17).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :

हिन्दी फिल्म जगत में 1957 यादगार साल था। आजादी मिले दस साल ही हुए थे। इसी साल गुरुदत्त की 'प्यासा', दिलीप कुमार की 'नया दौर' और नरगिस की 'मदर इण्डिया' लगी थी। 'प्यासा' हिन्दी सिनेमा के इतिहास की दुर्लभ फिल्मों में से एक है। इसे विश्व की 100 वर्ष की 100 सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल किया गया है। दरअसल 'प्यासा' कोई फिल्म नहीं, सेल्युलाइड पर छवियों से रचा काव्य थी। जिसके बारे में सत्यजीत रे ने कहा था : "कमाल का सेंस ऑफ़ रिदम और कैमरा की फ्लूइडिटी."

गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिन्दी की सदाबहार रोमांटिक फ़िल्म। इसमें दस गाने थे। सभी ज़बरदस्त ! देशभक्ति का गाना 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर, वे कहाँ हैं' नेहरूजी को बहुत पसंद था। इसके रोमांटिक गाने 'हम आपकी आँखों में इस दिल को..', 'जाने क्या तूने कही', और 'आज साजन मोहे संग लगा लो' भी खूब बजे।

प्यासा फिल्म में लाखों दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी - ''ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है..." नज़्म ने। फिल्म में इसका फिल्मांकन गज़ब के नाटकीय अंदाज में किया गया था। एक भव्य सभागार में महफ़िल जमी है और रहमान भाषण दे रहे हैं कि आज हम उस महान शायर विजय की बरसी पर इकठ्ठा हुए हैं। इसी दिन वह मनहूस घड़ी आई थी, जब वह महान शायर हमें छोड़कर चला गया था। अगर मेरे बस में होता तो मैं अपनी सारी दौलत लगाकर, खुद को मिटाकर भी उसे बचा लेता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अगर आज वे शायर जिन्दा होते तो खुद देख लेते कि जिस समाज ने उन्हें भूखा मारा, वह समाज उन्हें हीरों से तौलने के लिए तैयार है। आज वही दुनिया उन्हें अपने दिलों में बैठना चाहती है। . ब्ला। ..ब्ला। ..ब्ला !

.... और तभी दरवाजे से वही शख़्स प्रवेश करता है जिसके लिए शोक सभा हो रही थी। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई है। आँखों में सवाल हैं। कंधे पर लहराता हुआ शाल और वह बेतल्लुफी से गाना गाता है :

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?

नज़्म के आगे की लाइनें बताती हैं कि यहाँ इंसान की हस्ती किसी खिलौने के मानिंद है और यहां जिंदगी मौत से भी सस्ती है। आगे जिस्म बेचती बेबस औरतों का जिक्र है और प्यार को किसी व्यापार की तरह होने की बात है।

ये दुनिया, जहाँ आदमी कुछ नहीं है
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है

अब यह दुनिया ही इतनी जालिम है तो इस दुनिया से कैसी मुरव्वत! दस साल बाद 1967 में उपकार फिल्म आई थी जिसमें इंदीवर का लिखा और मन्ना डे का गाया गाना भी कुछ यही भाव लिये हुए था - कसमें -वादे प्यार-वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या ?

प्यासा के इस गाने के अंत में शायर का स्वर विद्रोही हो जाता है और वह कहता है :
जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया, जला दो, जला दो, जला दो
जला दो, इसे फूंक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया

'मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया', 'तुम्हारी है तुम ही सम्भालो ये दुनिया' ! 66 साल पहले इस तरह का रोमांटिक 'क्रांतिकारी' जज़्बातों का बड़ा बाज़ार था। ये गाना खूब चला और लोकप्रियता की इन्तेहां तक चला।

पूरा सभागार सन्न! जिसकी बरसी पर शोकसभा हो रही है, वह तो साक्षात आकर गा रहा है। कह रहा है ये इंसां के दुश्मन; समाज, दौलत के भूखे लोगों के बारे में। बता रहा है कि अगर ये दुनिया मिल भी जाये तो क्या है? आगे वह गाता है - हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी, निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी, ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी !

सचमुच सभागार में बैठे लोग बदहवास हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे जिसे साल भर से मरा हुआ मान रहे हैं, और जिसकी बरसी पर सभा कर रहे हैं, वह जिंदा कैसे हैं? यहाँ क्यों हैं? अचानक कुछ लोग आते हैं और उस अनामंत्रित आगंतुक को पकड़कर ले जाने की कोशिश करते हैं। आयोजकों में से एक हॉल की बिजली बंद कर देता है। हाहाकार मच जाता है।

'ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?' बहुत पैसिमिस्टिक होते हुए भी बहुत पसंद की गई। इस गाने को फिल्माने, इस फिल्म की कहानी, कहानी के फिल्म बनाने और कलाकारों के जीवन पर सैकड़ों किस्से हैं। ओशो को यह नज़्म इतनी पसंद थी कि 20 मई 1979 को पुणे आश्रम में उन्होंने अपना पूरा प्रवचन इसी गाने को सुनाते हुए दिया था। उन्होंने इसकी व्याख्या करते हुए कहा था -

मनुष्य के समक्ष जो शाश्वत प्रश्न है वह एक है। वह प्रश्न है कि मैं क्या पाऊं कि तृप्त हो जाऊं? धन मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। पद मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। यश मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलनी तो दूर, जैसे धन, पद और यश बढ़ता है वैसे ही वैसे अतृप्ति बढ़ती है। जैसे - जैसे ढेर लगते हैं धन के वैसे -वैसे भीतर की निर्धनता प्रकट होती है। बाहर तो अंबार लग जाते हैं स्वर्णों के - और भीतर? भीतर की राख और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है।

धन के बढ़ने के साथ दुनिया में निर्धनता बढ़ती हैं। इस अनूठे गणित को ठीक से समझ लेना। जितना धनी व्यक्ति होता है उतना ही उसका निर्धनता को बोध गहरा होता है। जितना सम्मानित व्यक्ति होता है, उतना ही उसे अपने भीतर की दीनता प्रतीत होती है। सिर पर ताज होता है तो आत्मा की दरिद्रता पता चलती है। गरीब को, भूखे को तो फुर्सत कहां? भूख और गरीबी ?बीच में ही उलझा रहता है। भूख और गरीबी को देखने के लिए भी समय कहां,सुविधा कहां? लेकिन जिसकी भूख मिट गयी,गरीबी मिट गयी, उसके पास समय होता है,सुविधा होती है कि जरा झांक कर देखें, कि जरा लौटकर देखे, कि जिंदगी पर एक सरसरी नजर डालें। कहां पहुंचा हूं? क्या पाया है। और दिन चूके जाते हैं और मौत करीब आयी जाती है। और मौत कब दस्तक देगी द्वार पर, कहा नहीं जा सकता। और हाथ से जीवन की संपदा लुट गयी। और जो इकट्ठा किया है वे कौड़ियां हैं!

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन मिल जाने पर ही पता चलता है। जब तक यह मिल न जाए, तब तक पता भी चले तो कैसे चले? हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि न इनसे प्यास बुझती है, न भूख मिटती है। हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि ये भी कंकड़ ही हैं; हमने प्यारे नाम दे दिये हैं। हमने अपने को धोखा देने के लिए बड़े सुंदर जाल रच लिए हैं।

हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी

यहां लोग सोए हुए हैं, मूर्च्छित हैं। चले जा रहे हैं नींद में। क्यों जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं, किसलिए जा रहे हैं, कौन हैं-कुछ भी पता नहीं। और सब जा रहे हैं इसलिए वे भी जा रहे हैं। भीड़ जहां जा रही है वहां लोग चले जा रहे हैं-इस आशा में कि भीड़ ठीक ही तरफ जा रही होगी; इतने लोग जाते हैं तो ठीक ही तरफ जाते होंगे। मां -बाप जाते हैं, पीढ़ियां -दर -पीढ़ियां इसी राह पर गयी हैं, सदियों -सदियों से लोग इसी पर चलते रहे हैं-तों यह राजपथ ठीक ही होगा।
... और कोई भी नहीं देखता कि यह राजपथ सिवाय कब्र के और कहीं नहीं ले जाता। ये सब राजपथ मरघट की तरफ जाते है।

ओशो की खूबी रही है कि वे सार सार को गहि लेते थे।

मैंने यह गाना कब सुना होगा, पता नहीं। लेकिन इसके अर्थ मुझे धीरे धीरे बरसों बाद समझ में आये। इसी गाने के साथ उपनिषद की यह प्रार्थना याद आती है : - ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।

लगा कि यह दर्शन नहीं, यह तो शुद्ध गणित है -शून्य में से शून्य को जोड़ो, घटाओ, गुणा -भाग करो; हमेशा शून्य ही आता है। इसमें कैसी प्रार्थना है? क्या प्रार्थना है ? जब सब कुछ शून्य ही है तो फ़ोकट की माथाफोड़ी क्यों?

बाद में समझ में आया कि इसका अर्थ है : वह जो (परब्रह्म) दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। यह जगत भी पूर्ण है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।

यह तो ज्ञानियों की बात हो गई। पत्रकारीय भाषा में समझें :
''कितने भाई -बहन हो?''
''चार''
''तब तो तुम्हारी मां तुम्हें 25 परसेंट प्यार करती होगी, चारों बच्चों में प्यार 25 -25 परसेंट बंट जाता होगा।''
''यह संभव ही नहीं। मां सभी को हंड्रेड परसेंट प्यार करती थीं। पर ये अलग मामला है। मां से इस मत जोड़ें। और कोई उदाहरण है क्या?''

''एक खाली बाल्टी लेकर नर्मदा जी के घाट पर जाओ। नर्मदा जी पूर्ण हैं। बाल्टी भर लो। बाल्टी भी पूर्ण। अब बाल्टी में से लौटा भर पानी लो। लौटा भी पूर्ण, बाल्टी भी पूर्ण। अब लौटे में से एक चम्चच पानी का भरो। चम्मच भी पूर्ण, लौटा भी पूर्ण, बाल्टी भी पूर्ण, नर्मदा जी भी पूर्ण। अर्थ है कि सभी पूर्ण हैं या सभी शून्य है। शून्य ही पूर्ण है!''

कबीर ने कहा है - ''जाता है सो जाण दे तेरी दसा न जाइ।''

प्यासा फिल्म अपने आप में अनेक कहानियां समेटे थीं।इसकी कहानी 1947-48 में लिखी गई जो हिमाचली शायर 'प्रेम' और गोल्डन हार्टेड वेश्या के जीवन पर आधारित थी। गुरुदत्त चाहते थे कि इसकी मुख्य भूमिका दिलीप कुमार करें, लेकिन उन्होंने इसके डेढ़ लाख रुपये मांगे। (तब सोना 90 रूपये तोला था). इतनी फीस गुरुदत्त दे नहीं सकते थे। माला सिन्हा का रोल नरगिस के लिए था, लेकिन वे नहीं मानीं। फिल्म में तवायफ बनीं वहीदा रहमान का गुलाबो वाला रोल मधुबाला के लिए था। कहानी को फिल्म में ढलते ढलते दस साल लग गये, लेकिन यह बनी तो विश्व सिनेमा की नायाब कड़ी।

जब प्यासा का प्रीमियर हुआ तब इसके गीतकार साहिर अपनी प्रेमिका अमृता प्रीतम के साथ आये थे। इमरोज ने अमृता के घर में रहना शुरू कर दिया था। प्रीमियर शो में इमरोज़ को अकेले आना पड़ा। वो चाहते थे कि अमृता प्रीतमनके साथ आये.... वह अलग कहानी है। फिर कभी।

गुरुदत्त (मूल नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे) हिन्दी फिल्म उद्योग जगत के पहले सुपर परफेक्शनिस्ट कहलाये। गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा को टाइम मैगज़ीन ने विश्व की 100 सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में स्थान दिया। 2002 में साइट और साउंड के क्रिटिक्स और डायरेक्टर्स के पोल में गुरु दत्त की दो फ़िल्मों- प्यासा और कागज़ के फूल को सर्वकालिक 160 महानतम फ़िल्मों में चुना गया। उनका निजी जीवन क्लेशों से भरा था। उन्होंने दो शादियां कीं। कजाने कित्ते अफेयर्स किये। बार बार आत्महत्या की कोशिश की और तीसरी बार कामयाब हुए। जब मौत हुई तब 40 साल के भी नहीं थे।
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साहिर लुधियानवी का लिखा पूरा गाना :

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनिया अगर मिल भी...

यहाँ इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती
ये दुनिया अगर मिल भी...

जवानी भटकती हैं बदकार बन कर
जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर
यहाँ प्यार होता है व्योपार बन कर
ये दुनिया अगर मिल भी...

ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
ये दुनिया अगर मिल भी...

जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया
जला दो, जला दो, जला दो
जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी...

फिल्म : प्यासा (1957)
गीतकार : अब्दुल हयी साहिर लुधियानवी
गायक : मोहम्मद रफ़ी
संगीत : सचिन देव बर्मन
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-प्रकाश हिन्दुस्तानी
04 -08 -2023
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