यह अच्छा हुआ कि विकास संवाद ने अपने दसवें मीडिया कानक्लेव का विषय थोड़ा सा बदलकर ‘आजाद भारत में विकास’ कर दिया, वरना संदेश यह रहता कि कॉनक्लेव के पहले ही मीडिया संवाद की सोच नकारात्मक है। अब यह बात और है कि तीन दिन के इस कॉनक्लेव में 14 विचार सत्रों के बाद यहीं निष्कर्ष निकलता है कि विकास जिस दिशा में, जिस तरीके से, जिन लोगों के लिए होना चाहिए था, उस तरह नहीं हो रहा। विकास का लाभ जिन लोगों को मिलना चाहिए वह भी संतोषजनक नहीं है। विकास के जो पैमाने हमने मान रखे हैं, वे भी शायद उचित पैमाने नहीं कहे जा सकते। तीन दिन के सम्मेलन में किसानों की आत्महत्या, दलितों का उत्पीड़न, जेंडर बायस, पर्यावरण की दुर्गति, जन स्वास्थ्य की अनदेखी आदि स्थितियों का समाधान खोजने के बारे में चर्चाएं हुई। विकास से जुड़े अनेक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चाएं करने और सुनने का औपचारिक और अनौपचारिक मौका मिला। विकास के मॉडल, विकास के लक्ष्यों के मायने, आजादी के बाद विकास के हमारे मॉडल, विकास की नीतियों से हमने क्या हासिल किया है, मीडिया विकास के स्वरूप और उसकी मॉडल की कैसी समीक्षा करता है, क्या यह विकास स्वस्थ समाज की तरफ ले जा रहा है और स्वास्थ्य सेवाएं क्या केवल एक बाजार है, खाद्य सम्प्रभुता की स्थिति क्या है, क्या विकास का मतलब अभाव में रहते हुए संतोषी जीवन जीने की तकनीक का विकास है और क्या विकास की प्रक्रिया में मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है जैसे विषयों पर चर्चाएं हुर्इं।
देशभर के करीब 100 पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और विशेषज्ञ जुटे। विकास की नीतियों पर तो चर्चा हुई और मीडिया के बारे में भी लोगों ने अपने विचार खुलकर रखे। मीडिया की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए, सरकार की नीति और नीयत की पड़ताल की गई और समाज में बदलते परिदृश्यों को रेखांकित करने का प्रयास भी किया गया।
राजस्थान के जेसलमेर के पास रामगढ़ के रहने वाले कृषक चतर सिंह और राजस्थान के ही लापोड़िया गांव के किसान लक्ष्मण सिंह भी इस आयोजन में उपस्थित रहे। इन दोनों कार्यकर्ताओं ने औपचारिक चर्चा में तो भाग लिया ही, पूरे समय कॉनक्लेव में वे उपस्थित भी रहे और अनौपचारिक चर्चाओं से हमें लाभान्वित कराते रहे। चतर सिंह जी ने कहा कि हम लोग पानी को रोकते नहीं, पानी को रमाते हैं। केवल 11 मिलीमीटर वर्षा में भी हम न केवल अपना गुजारा करते है, बल्कि वनस्पतियों और मवेशियों के लिए भी पानी की पूर्ति करते है। हमारे बनाए तालाब ऐसे है, जिनमें पानी समाधिस्थ हो जाता है। ट्यूबवेल से भले ही हम पानी निकाल लें, लेकिन वह पानी वनस्पतियों की रक्षा नहीं कर सकता। वनस्पति की रक्षा तो तालाबों से ही होती है। हम कोई देवपुरूष नहीं है, लेकिन हम जो कुछ कर रहे है, वह अपनी सामान्य बुद्धि से कर रहे है। दुर्भाग्य की बात है कि अब विकास का भूत हमारे इलाके में भी आ रहा है। अब विकास सोने की कटारी है, तो क्या उसे अपने पेट में भोंक लें?
लापोड़िया ग्राम की तस्वीर बदलने वाले राजस्थान के लक्ष्मण सिंह ने लापोड़िया और उसके आसपास के तमाम गांवों में किए जा रहे उनके प्रयोगों के बारे में बताया। लक्ष्मण सिंह और उनकी प्रेरणा से गांव के लोगों ने लापोड़िया और आसपास के पूरे इलाके को हरा-भरा और प्रकृति के करीब मौजूद गांव में बदल दिया। दोनों ही विशेषज्ञों ने गांवों में किए जा रहे अपने प्रयोगों के साथ ही अपने जीवन दर्शन पर भी चर्चा की। उनके जीवन दर्शन में न केवल इंसान बल्कि सभी वनस्पतियां और जीव-जन्तु भी सहचर है।
सेंटर फॉर साइंंस एंड एनवायरमेंट के निदेशक चंद्रभूषण ने अपनी चर्चा में पं. जवाहर लाल नेहरू के बारे में कहा कि उन्हें पर्यावरण विरोधी माना जाता है, क्योंकि वे बड़े बांधों और औद्योगिकीकरण के समर्थक थे, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। जवाहरलाल नेहरू भी भांखड़ा नंगल बांध के बाद छोटे बांधों के समर्थक हो गए थे। उन्होंने बाद में कहा था कि हमें अब और बड़े बांधों की जरूरत नहीं है। पर्यावरण की रक्षा के बारे में चंद्रभूषण ने साफ-साफ कहा कि केवल कानून से पर्यावरण नहीं बचेगा। आज की सबसे बड़ी समस्या क्लाइमेट चेंज है। अनु आनंद ने भी अपने विचारों में पर्यावरण, पारिस्थितिकी, स्वास्थ्य और समानता के बारे में खुलकर कहा।
आईआईएमसी दिल्ली के शिक्षक और अर्थशास्त्री आनंद प्रधान ने विकास के मतलब और आर्थिक वृद्धि के बारे में चर्चा की। पत्रकार साथियों को उन्होंने ज्यादा गंभीरता से और सदैव सिद्धांतों पर चर्चा करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि अगर हम सही सवाल नहीं खड़े कर सकते, तो हमें सही जवाबों की आशा भी नहीं करनी चाहिए। यह सही है कि असमानता बहुत बढ़ गई है, लेकिन पूंजीवाद और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। ग्रीस इसका एक उदाहरण है। आनंद प्रधान चर्चा में अनेक विचारोत्तेजक सवाल खड़े किए। उन्होंने सलाह भी दी कि पत्रकारों को क्या पढ़ना चाहिए। गिरीश उपाध्याय ने देश में हो रहे विभिन्न घटनाक्रम की चर्चा करते हुए कहा कि इन निराशाजनक घटनाओं के होते हम यह कैसे मान लें कि हम विकास की ओर बढ़ रहे है?
प्रशांत भूषण ने आजादी के बाद अपनाए गए लोकतंत्र और न्याय के संदर्भ में विकास के मॉडल की चर्चा की। उन्होंने कहा कि लोगों के लिए जो अनिवार्य जरूरतें है, जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य। पब्लिक सेक्टर को लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा की जवाबदारी संभालनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हरित क्रांति फर्टीलाइजर उद्योग को बढ़ावा देने की कसरत है। डीजीपी बढ़ाने के चक्कर में खदानें खोदना और एक्सपोर्ट बढ़ाना जरूरी हो गया है। भले ही उससे वनों को कितनी भी हानि हो रही हो। वनों की हानि को हम जीडीपी से नहीं घटाते। न्यायपालिका पर चर्चा करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि न्यायपालिका का काम लोगों को न्याय देने के साथ ही विधायिका पर नियंत्रण रखना भी है। अभी हमारी स्थितियां यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से रिटायर हुए 70 प्रतिशत न्यायमूर्ति किसी न किसी ‘जॉब’ में लग जाते हैं। आर्बीट्रेशन एक इंडस्ट्री के रूप में तब्दील हो गया है, जिसके 15 प्रतिशत फैसले आमतौर पर पब्लिक सेक्टर के पक्ष में नहीं होते। न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनना चाहिए और न्यायिक सुधारों के लिए बड़ा राष्ट्रीय अभियान चलाया जाना चाहिए। न्यायिक व्यवस्था को सुगम, सस्ता और सर्वमान्य बनाने की कोशिश की जानी चाहिए।
विकास और हिंसा के बदलते प्रतिमानों पर चिन्मय मिश्र ने कहा कि अमेरिका में मुर्गी पालन और मांस उद्योग में कर्मचारियों की दशा इतनी बदहाल है कि उन्हें आठ-आठ घंटे तक बिना विश्राम और सुविधा के कारखानों में काम करना होता है। उन्हें गुसलखाने तक जाने की भी छूट नहीं होती। मजबूरी में वे डायपर पहनकर काम करते हैं। यह दुनिया के सबसे सम्पन्न माने जाने वाले देश की स्थिति है। हम जिसे विकास कहते हैं, वह अनेक स्तर पर हिंसा को बढ़ावा देता है। उन्होंने शुगर डैडी और शुगर मम्मी के बारे में भी बताया और चेतावनी दी कि विकास की यह हिंसा समाज को कहां तक ले जाएगी। श्रावणी सरकार ने बढ़ते जातिवाद पर चिंता जताई और छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर हो रही हिंसा के बारे में सतर्क किया। संदीप नाईक ने कहा कि विकास के लिए लड़े और लड़ते रहें।
खाद्य और कृषि नीति विश्लेषक और पत्रकार देविन्दर शर्मा ने खेती और विकास के क्षेत्र में खाद्य सम्प्रभुता के बारे में खुलकर चर्चा की। उन्होंने कहा कि देश को जितना नुकसान नेताओं ने पहुंचाया है, उतना ही पत्रकारों ने भी। हमें पूरे डिस्कोर्स को बदलना है, पर हम बदलना ही नहीं चाहते। हमें आज अपने आप के भीतर झांकना चाहिए। एसईझेड के बारे में उन्होंने कहा कि इससे फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो रहा है। हमारी ग्रोथ आर्थिक नहीं है। यह वॉलेट ग्रोथ है। 85 लोगों के पास दुनिया की आधी संपत्ति है और वे उसे बढ़ाने में लगे है। अमीर लोगों की ग्रोथ भी जीडीपी में शामिल होती है। पिछले एक साल में इन अमीर लोगों की संपत्ति 240 बिलियन डॉलर बढ़ी है। क्वांटिटी इजींग के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अकेले अमेरिकी ने पिछले तीन साल में चार ट्रिलियन डॉलर के नोट छापे है। अमेरिका इन डॉलर को 0.2 प्रतिशत ब्याज पर दे देता है और अमेरिकी पूंजीपति उसे भारत में निवेश कर देते है। इतने कम ब्याज पर मिले धन से वे भारत में लूट मचा देते है। यहीं स्थिति चीन की और यूरोप के देशों की है। देविन्दर शर्मा ने भविष्यवाणी की कि दुनिया का अंत स्टॉक मार्केट से होगा। उन्होंने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को बढ़ाने और लगातार बढ़ाने का पक्ष लिया। जीएसटी से जरूरत की चीजें तो सस्ती नहीं होगी, लेकिन विलासिता की चीजें जरूर सस्ती हो जाएंगी। कारों से टैक्स कम हो जाएगा, लेकिन रोजमर्रा की खाने की चीजों पर टैक्स बढ़ जाएगा। सरकार जीएसटी की तारीफ ऐसे करती है, मानो जीएसटी, जीएसटी न होकर सर्फ एक्सेल हो, जो सारे दाग धो डालेगा। अगर सरकार कार्पोरेट सेक्टर को 6 लाख 11 हजार की छूट दे सकती हैं, तो किसानों को सब्सिडी क्यों नहीं दे सकती? मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक कार्पोरेट सेक्टर को 48 लाख करोड़ की छूट दी जा चुकी है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद 12 साल में एक करोड़ 60 लाख रोजगार बढ़े, लेकिन बीते एक साल में केवल सवा लाख लोगों को ही रोजगार मिल सका। इसके पहले के वर्ष में साढ़े चार लाख लोग रोजगार में लगे। हमारे देश में जितने जॉब क्रिएट होने चाहिए, वे नहीं हो रहे है। आज 42 प्रतिशत लोग खेती छोड़ना चाहते है। 58 प्रतिशत किसान भूखे पेट सोते है। यह दुष्प्रचार हो रहा है कि किसानों की पैदावार कमजोर है, इसलिए किसानों को गांव छोड़कर शहरों की ओर चले जाना चाहिए। अगर आप तुलना करें तो पाएंगे कि पंजाब के किसानों की उत्पादकता, अमेरिका के किसानों की उत्पादकता से कहीं भी कमतर नहीं है। अमेरिका अपने किसानों को तो सब्सिडी देता है और हमारे किसानों को सब्सिडी दिए जाने की बारे में उल्टी राय रखता है। सरकार की तरफ से कहा जाता है कि 2022 तक तीस करोड़ नए रोजगार तैयार किए जाएंगे। जबकि असलियत यह है कि पिछले 69 साल में 30 करोड़ जॉब तैयार नहीं किए जा सके हैं। हमारे यहां सबसे बड़ा जॉब सेक्टर आईटी नहीं, मंदिर और गुरुद्वारा सेक्टर है। हमारे यहां चौकीदार, लिफ्टमैन, वॉचमैन रोजगार के सेक्टर बने हुए है। हमारी जीडीपी फेक है। पूरी दुनिया में ही जीडीपी के नाम पर धोखेबाजी हो रही है। यूके, इटली आदि सात देशों ने तो वेश्यावृत्ति से होने वाली आय को भी जीडीपी में शामिल कर लिया है। कुछ देशों ने तो ड्रग के धंधे में होने वाले कारोबार को भी इसमें जोड़ लिया है। देविन्दर शर्मा ने जोर देकर कहा कि केवल खेती की भारत को इस संकट से बचा सकती है। किसानों की आय और सरकारी नौकरियों में लगे लोगों की आय की उन्होंने तुलना की और बताया कि किसानों की आय अपेक्षाकृत नहीं बढ़ी है।
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को भी बाजार बना दिया गया है। जो स्वास्थ्य सेवाएं पाने का हर व्यक्ति को अधिकार है, उन सेवाओं को पीपीपी मॉडल में थोपा जा रहा है। ताकि प्राइवेट सेक्टर को अधिकाधिक लाभ मिल सके। अरविन्द मोहन ने बीमा क्षेत्र में हो रही धांधली की तरफ इशारा किया। विजय लक्ष्मी अरोड़ा ने हेल्थ सेक्टर में महिलाओं को दी जाने वाली सुविधाओं पर चर्चा की। विहंग सालगट ने अपने अनुभव शेयर किए।
वैसे तो सभी चर्चा सत्रों में मीडिया की भूमिका को लेकर चर्चा होती रही, लेकिन एक सत्र यह भी था कि क्या वास्तव में मीडिया विकास के स्वरूप और उसके मॉडल की समीक्षा करता है। दिलनवाज पाशा और शुभांशु चौधरी ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त किए। अरविन्द मोहन ने कहा कि पत्रकारिता की हालात उतनी दयनीय नहीं है, जितनी की बताई जा रही है। नया मीडिया अभी भी उतना सशक्त नहीं हुआ है, जितनी चर्चाएं की जा रही है। समयाभाव के कारण प्रकाश हिन्दुस्तानी ने अपना लिखित वक्तव्य पढ़ने के बजाय संक्षिप्त चर्चा में सकारात्मक पत्रकारिता के नाम पर सरकारी कार्यक्रमों के बेजा प्रचार की आलोचना की और कहा कि आज के दौर में सरकार का लगभग हर काम इवेंट की तरह होने लगा था। विकासशील पत्रकारिता के नाम पर खबरों को छुपाया जा रहा है और खबरों में विज्ञापनों की मिलावट की जा रही है। जिस मीडिया को वॉचडॉग और गेटकीपर की भूमिका निभाते हुए जनहित से जुड़े मुद्दों पर एजेंडा सेटिंग करनी चाहिए, वह मीडिया बौद्धिक नसबंदी करा चुका है। आज प्रिंट और टीवी दोनों ही मीडिया जनसरोकारों से दूर होते जा रहे है और अपने पाठकों और दर्शकों का ध्यान सामाजिक मुद्दों से हटा रहे है। उनकी सूचनाएं लोगों में भ्रम और मतभेद भी पैदा कर रही है।
तीन दिन तक चले इन 14 चर्चा सत्रों में 60 से अधिक लोगों ने अपने वक्तव्य खुलकर रखे। अंतिम सत्र खुले सत्र के रूप में था, जिसमें हर कोई अपनी बात कहने को स्वतंत्र था। पूरे चर्चा सत्रों में विषय विशेषज्ञों के अलावा अम्बरीश कुमार, प्रोफेसर भूपेन्द्र सिंह, जयदीप हार्डिकर, विनय प्रकाश त्रिपाठी, एम. मीनाक्षी, राकेश मालवीय, राकेश दीवान, सचिन जैन, ईशान अग्रवाल, रश्मि प्रजापति, एम. अखलाख, सयाली चौधरी, साकेत दुबे, आशीष त्रिवेदी, केशरसिंह, राजकुमार भाई, प्रसून लतान्त, राजू कुमार, अतुल कुमार, कश्मीर सिंह उप्पल आदि के प्रभावी विचार सुनने का मौका मिला। राकेश दिवान ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि हमारे समाज में लोगों को हर समस्या के लिए भ्रष्टाचार को जिम्मेदार ठहराने का रोग लग गया है, लेकिन हम ऐसा नहीं मानते कि हर समस्या की जड़ भ्रष्टाचार ही है। हमारी अनेक समस्याएं हमारे विचारों और नीतियों के कारण पैदा हुई हैं और कई तो पूरी तरह से जिम्मेदार भी हैं।
विकास और मीडिया : क्या वास्तव में मीडिया विकास के स्वरूप और उसके मॉडल की समीक्षा करता है?
विश्व बैंक के अध्यक्ष रह चुके जेम्स वोलफेंसन ने वाशिंगटन पोस्ट में 10 नवंबर 1999 को एक लेख लिखा था, जिसका विषय था वाइस ऑफ दी पुअर। यह लेख कई मायनों में ऐतिहासिक था। सबसे बड़ी बात जेम्स वोलफेंसन ने यह कही कि स्वतंत्र और सक्रिय प्रेस कोई विलास का साधन नहीं है। एक स्वतंत्र प्रेस न्यायोचित विकास के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। अगर आम लोगों को अपनी बात कहने का हक न हो, भ्रष्टाचार और भेदभावपूर्ण विकास पर पैनी निगाहें न हो, तो आप इच्छित परिवर्तन के लिए लोक सहमति तैयार नहीं कर सकते। यहां वोलफेंसन की इस बात से साफ नहीं होता कि लोक सहमति और विकास में कोई समानुपातिक संबंध है पर इतना तो तय हो जाता है कि विश्व बैंक जैसी पूंजी वाली संस्था के अध्यक्ष रह चुके विशेषज्ञ ने भी मीडिया और विकास के संबध को जोड़ा है।
यहीं बात अमृत्य सेन ने अपनी किताब डेवलपमेंट एज फ्रीडम में लिखी है। अमृत्य सेन के अनुसार मानवीय स्वतंत्रता विकास का साधन भी है और साध्य भी। अगर मीडिया के विकास से मिलने वाले विचार और अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में साधन से इच्छित विकास के परिणाम को प्राप्त किया जा सकता है। 1948 में यूनिर्वसल डिक्लीयरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स के तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मनुष्य का मौलिक अधिकार माना गया है और यह विकास की पहली और प्रमुख कड़ी है। सशक्त और मजबूत मीडिया के विकास से ही यह मौलिक अधिकार सुरक्षित रह सकता है।
मीडिया के विकास को आप कई रूप में ले सकते है। अगर मीडिया स्वतंत्र रूप से और बिना किसी दबाव के काम करे, मीडिया में विचार और अभिव्यक्ति की बहुलता और विविधता हो, मीडिया के सफल संचालन में सरकारों की नियतियां अनुकूल हो, तो एक सुदृढ़ मीडिया प्रजातंत्र की धुरी बन जाता है। पीपा नॉरेस ने अपनी किताब पब्लिक सेंटीमल न्यूज मीडिया एंड गवर्नेंस रिफॉर्म में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि कैसे एक स्वतंत्र मीडिया सुशासन और प्रजातंत्र को प्रभावित करता है। नॉरेस ने सशक्त मीडिया की आदर्श भूमिका की चर्चा की और कहा कि समाचार मीडिया अपने कई कारणों से विकास को बढ़ावा और मजबूती दे सकता है। मीडिया वॉचडॉग , एजेंडा सेटिंग और गेटकीपर की भूमिका सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व दे सकता है। वॉचडॉग के रूप में मीडिया प्रहरी की भूमिका में होता है, जहां वह सत्ता से जुड़े व्यक्तियों और संस्थाओं के क्रियाकलाकों पर पैनी नजर रख सकता है। अगर वहां अक्षमता और अकुशलता, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद हो, तो मीडिया उन सूचनाओं को सार्वजनिक करके नागरिकों को जागृत कर सकता है। इसीलिए मीडिया को चौथा स्तंभ की संज्ञा दी गई है। भारत में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते है, जहां मीडिया ने वॉचडॉग की भूमिका बहुत कुशलता से निभाई है। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी घोटाला, कोयला घोटाला आदि मीडिया की सक्रियता से ही सामने आ सके है।
एक सशक्त मीडिया अपने कार्यों से जनहित से जुड़े तमाम मुद्दे समाज के सामने लाकर एजेंडा सेटिंग कर सकता है। मीडिया उन मुद्दों को उठा सकता है, जिन पर गहन चर्चा हो सकती है। सरकार उन मुद्दों पर ध्यान दे सकती है और अपनी नीतियों का निर्धारण जनता के हिसाब से कर सकती है। नेट न्यूट्रेलिटी पर छिड़ी बहस भी वास्तव में मीडिया सेटिंग का ही नमूना है। इस तरह से मीडिया कोई कारोबार न होकर जनता के प्रतिनिधि के रूप में काम करने लगता है। अमृत्य सेन ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर प्रेस स्वतंत्र है, तो देश में अकाल की स्थिति नहीं आ सकती, क्योंकि प्रेस विषम स्थिति में शासन और सत्ता आगाह करता रहता है, जिससे अकाल और विपदा की स्थितियां टल सकती है।
जन सरोकारों से जुड़े विभिन्न आयामों वाले विचारों का जनमंच भी मीडिया है। यहां मीडिया एक पब्लिक स्पेयर यानि जनवृत्त या जन वर्ग की तरह कार्य करते है। जनमत उसी से तैयार होता है। विश्व बैंक ने 1999 में चालीस हजार लोगों का एक सर्वे करके यह जानने की कोशिश की कि वह कौन-सी चीज है, जो लोग सबसे ज्यादा चाहते है। जो जवाब मिला, वह महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोगों ने जिस चीज को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना, वह थी आवाज को प्रकट करने के की जगह।लोग चाहते है कि उन्हें अपनी बात रखने का पूरा मौका मिले और निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का हिस्सा भी।
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भारतीय प्रेस की स्थिति को लेकर कई तरह की शंकाएं प्रकट की। उनकी पहली शंका तो यह थी कि भारतीय प्रेस बौद्धिक रूप से ही कमजोर है, लेकिन फिर भी उन्होंने जो कमियां बताई, वे मुख्यत: तीन है। पहली तो यह कि मीडिया महत्वपूर्ण और सामाजिक मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाता रहता है। दूसरा भारतीय मीडिया सूचनाओं के द्वारा लोगों में मतभेद पैदा कर देता है और तीसरा यह कि मीडिया को जहां वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहिए था, वहीं वह पुरातनपंथी सोच को बढ़ावा दे रहा है। ऐसा लगता है कि भारतीय मीडिया को जन सरोकारों की चिंता नहीं है।
अगर आप भारतीय मीडिया के स्वामित्व और प्रबंधन पर ध्यान दे तो पता चलेगा कि पूंजीपति घरानों और राजनेताओं की उसमें प्रमुख भूमिका है। रिलायंस समूह, बिड़ला समूह, जिंदल समूह जैसे बड़े औद्योगिक घराने मीडिया पर कब्जा जमाने की जुगत में है। एक बड़ी सीमा तक मीडिया पर इस तरह के समूहों का कब्जा है भी। इसके अलावा पेंटालून समूह के किशोर बियानी, मेकडोनल्ड के प्रबंध निदेशक विक्रम बख्शी और चमड़ा व्यवसायी रशीद मिर्जा जैसे लोग भी मीडिया समूह के प्रबंधन में शामिल है। अन्ना द्रमुक की जयललिता का जया टीवी, बीएमके का कलेनगार टीवी, कलानिधि मारन का सन टीवी, राजीव शुक्ला का बेग फिल्मस और न्यूज 24 पर कब्जा है। इसके अलावा अनेक मीडिया संस्थानों में राजनेताओं की अप्रत्येक्ष भागीदारी भी है।
इसका नतीजा यह है कि आम आदमी, आम किसान और मजदूर के हितों की तरफ मीडिया का ध्यान नहीं है। जो सरकारी योजनाएं बन रही है, उनका फायदा समाज के एक खास वर्ग को भी मिल रहा है। मीडिया शोषित तबके को उसके अधिकार बताकर जागृत करने में बड़ी भूमिका निभा सकता था, लेकिन वह नहीं निभा रहा है। जन लोकपाल जैसे मुद्दे पर जागरुकता फैलाने और लोगों को एक जुट बनाने वाला मीडिया बड़े-बड़े मीडिया घरानों के भारी भ्रष्टाचार पर एकदम चुप्पी साध लेता है। जिस मीडिया को समाज का नेतृत्व करना चाहिए था, वह औद्योगिक घरानों के सामने घुटने टेकता जाता है।