शाहिद मिर्ज़ा मोहम्मद बेग चुग़ताई। यही पूरा नाम था उसका। वे हट्टोल थे। यह शब्द उन्हीं का गढ़ा हुआ था। हठी और अड़ियल का सम्मिश्रण। जींस-कुर्ता, तर्जे-तग़ाफ़ुल वाली बेपरवाही की अदा; बातों के दौरान बीच-बीच में मालवी-निमाड़ी शब्दों का उपयोग और ज़रूरत हो तो अंग्रेज़ी का; 'श्लोकोँ' से अलंकृत, ठहाके, भदेस और जुझारूपन।
आज से ठीक दस साल पहले जयपुर से उनके जाने की असहनीय वेदना देनेवाली खबर आई थी। जो व्यक्ति बरसों बरस साये की तरह साथ रहा हो, नईदुनिया, नवभारत टाइम्स और फिर दैनिक भास्कर में सहकर्मी रहा हो, कभी समकक्ष, कभी वरिष्ठ और कभी कनिष्ट, जो व्यक्ति जहाँ कहीं भी रहा हो, हमेशा छाया रहा हो; न केवल मित्र मंडली में, बल्कि जिस भी शहर में रहा हो वहां के सांस्कृतिक परिदृश्य में। साहित्यिक जगत में, कॉफी हाउस में, गोष्ठियों और चाय के अड्डों में। सहकर्मियों से उनका नाता सदा भाई चारे का रहा, ऑफ़िस पॉलिटिक्स से सदा दूर। वे इंदौर के दैनिक भास्कर में प्रभारी थे, तब तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरामन ओंकारेश्वर मे शंकराचार्य की तपस्थली वाली गुफा के जीर्णोद्धार समारोह के लोकार्पण को आए थे। कीर्ति राणा वहां कवरेज के लिए गए थे और कीर्ति भाई ही थे जो राष्ट्रपति जी से बातचीत कर सके थे। छपने से पहले जब वह रिपोर्ट शाहिद भाई के हाथ आई, तब उन्होंने उसमें जोड़ा -- ' राष्ट्रपति ने कीर्ति राणा से कहा'.
शाहिद भाई ने एनएसडी की डिग्री नहीं ले थी, लेकिन वे गज़ब के रंगकर्मी थे और आशु कवि भी। इंदौर में 'रंगशाला' शुरू करने का श्रेय शहीद को ही है. सांस्कृतिक इतिहास की वाचक कला के उस्ताद. एक बार बोलना शुरू करा देते तो कोई भी उन्हें चुप नहीं करा सकता था, सिवाय उनकी माँ के, जिनके पास शाहिद भाई की हर बात का तोड़ रहता था. पीयूष मिश्रा जैसी कविताएं आज सुनाते हैं, उससे ज़्यादा शानदार कविताएं वे चाय पीते-पीते कह देते थे और कभी यह दावा नहीं करते थे कि यह कोई कविता है भी !
नईदुनिया, नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर के सम्पादकीय लिखते वक़्त वे जो तैयारी करते थे, उसके दौरान कई कई बार पूरी रात लाइब्रेरी में चाय-बिस्कुट के सहारे काट देते थे। जब वे राजस्थान पत्रिका में गए और उसके अलग अलग संस्करणों में काम किया तब भी वे पूरे राजस्थान को समझने के लिए वहां के सभी प्रमुख केंद्रों पर गए। वे वहां जिस भी संस्करण के सम्पादक बने, उसका प्रसार बढ़ा। वे बिना किसी दुविधा के सच्ची और कड़वी बात सरलता से कह देते थे। गलत बात को हंसी में उड़ा देना उनकी आदत थी। अपने सहकर्मियों के आगे बढ़ने पर उन्हें कभी ईर्ष्या नहीं हुई, उन्हें अच्छा काम करने पर बधाई देते, खुश होते, यह गुण आज भी दुर्लभ है; पहले भी था.
शाहिद ने सब सीखा, अखबारनवीसी, भाषाएँ, बोलियां, अदब, संगीत लेकिन दुनियादारी नहीं सीखी। या योन कहें कि दुनियादारी की जल्लाद शैली से बचे रहने के कारन ही उनके भीतर का बच्चा 52 साल तक बच पाया। हम दोनों इंदौर के एक छोर सुदामा नागर में किराये के कमरे में रहते थे, और साइकिल से पहली बार साथ साथ छप्पन दूकान आये। शाहिद ने विजय चाट वाले के यहाँ ऑर्डर किया -- चार कचोरी। मैंने टोका -- चार क्यों? हम दो ही तो हैं। शाहिद ने कहा -- हाँ, इसीलिये तो चार। तो तेरी, दो मेरी। बाद में आइसक्रीम की दु कान और फिर शिकंजी के आर्डर भी इसी तरह दिए गए। खाने पीने का शौक उनके लिए उच्च रक्तचाप का कारण बना।
शाहिद भाई.... दस साल हो गए हैं, पर लगता है कि यहीं हैं, हमारे बीच ही हैं और अभी आकर महफिलों में जान फूंक देंगे।
29 May 2017
Indore