विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न दलों के प्रवक्ता और शीर्ष नेताओं की भाषा स्तरीय नहीं कही जा सकती। इस बार लोगों ने जिस तरह की भाषा सुनी, उस तरह की भाषा राष्ट्र नायकों के मुंह से शोभा नहीं देती। आम सभाओं और टीवी की डिबेट के दौरान इस तरह की भाषा आम हो चली थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कभी खुद को देश का चौकीदार कहा था, तो उन्हें इशारा करके कहा गया कि चौकीदार चोर है। स्पष्ट है कि यह बहुत आक्रामक भाषा है। दूसरे तरफ प्रवक्ता कहते है कि क्रिश्चियन मिशेल क्या राहुल गांधी के मामा है? यह क्या भाषा हुई? कोई कहे कि मेहुल मोदी और नीरव मोदी चौकीदार के भाई है, तो। प्रधानमंत्री अम्बानी से गले मिले और यह चित्र अखबारों में छपा, अब कोई कहे कि यह मौसेरे भाइयों का मिलन है, कितनी घटिया भाषा। क्रिश्चियन मिशेल के वकील को देशद्रोही कहने वाले कभी सोचेंगे कि भोपाल गैस कांड के आरोपी वारेन एंडरसन का वकील कौन था? और इंदिरा गांधी के हत्यारों के वकील कौन थे? इसके अलावा सुन मोदी, विधवा, लोहा चोरी, गहना चोरी, नाजायज रिश्ते, बीवी छोड़कर भागना आदि किस तरह की भाषा और किस तरह के मुहावरे है। आजादी के बाद के चुनावों में तो वक्ता अपने विरोधी नेता को भी जी लगाकर संबोधित करते थे। अब न तो कोई जी लगाता है और न ही श्री। सीधे-सीधे वन लाइनर पर आ जाते है। मानो किसी फिल्म के लिए डॉयलाग लिख रहे हो। इसके अलावा जाहिलों, डकैतों, झूठन खाने वालों, मक्खी के बराबर, सभ्यता के दायरे में रहना सीखो, बलात्कार के आरोपी, कान से पीप बहेगा, नेहरू जी की चप्पल सुंघकर ही होश आता था, एजेंट, दलाल, डबल बाप वाले जैसे शब्दों का इस्तेमाल तो गली-मोहल्ले के गुंडे भी नहीं करते, लेकिन इस तरह की शब्दावली अब राष्ट्रीय पार्टियों के नेता टेलीविजन पर करते है और इतने जोश में करते है, मानो वह कोई शास्त्रार्थ कर रहे हो।
सार्वजनिक जीवन में रहने वाले नेताओं के बीच अनेक बार असामाजिक तत्व घूस आते है। किसी न किसी बहाने व नेताओं के साथ फोटो खींचवा लेते है और उसे ही जगह-जगह शेयर करने लगते है, उसका मतलब यह नहीं कि नेता के उससे रिश्ते हो ही। पिछले दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश भाजपा के चुनाव प्रचार वाले नारे पर आपत्ति की थी और कहा था कि अब ‘माफ करो महाराज’ का नारा लगाने वालों ने मेरी दादी विजयाराजे सिंधिया ने यह क्यों नहीं कहा कि माफ करो महारानी? जब वह जनसंघ के लिए फंडिंग कर रही थी, तब तो कोई आपत्ति नहीं की गई, जब मेरी बुआ राजस्थान में मुख्यमंत्री बनी, तब किसी ने नहीं कहा कि माफ करो महारानी। जब वसुंधराराजे और श्रीमती माया सिंह भाजपा में मंत्री बनी, तब किसी ने नहीं कहा कि माफ करो महारानी। कांग्रेस पर भाई-भतीजावाद का आरोप लगाने वाले वरूण गांधी और मेनका गांधी को अपनी पार्टी ने टिकिट देते वक्त उनका खानदान क्यों भूल जाते है।
पहले भी आम चुनावों में तरह-तरह के नारे लगते थे। उन नारों में जब जनसंघ का यह नारा गुंजा - ‘जली झोपड़ी, भागे बेल, यह देखो दीपक का खेल’ तब उसकी बहुत आलोचना हुई थी, क्योंकि जनसंघ का चुनाव चिन्ह था दीपक और कांग्रेस का था दो बेलों की जोड़ी। उसके जवाब में कांग्रेस ने नारा दिया था, इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं। 1952 के पहले आम चुनावों में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने नारा दिया था - ‘खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को’। 1978 में चिकमंगलूर के लोकसभा उपचुनावों में कांग्रेसी नेता देवराज उर्स ने इंदिरा गांधी के प्रति वफादारी दिखाते हुए नारा दे दिया था - ‘एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमंगलूर-चिकमंगलूर’। इंदिरा गांधी तब चिकमंगलूर से लोकसभा उपचुनाव में प्रत्याशी थी। आरक्षण के पक्ष में मायावती ने जिस तरह की भाषा बोली, राम मनोहर लोहिया ने वहीं बात बेहद अच्छे तरीके से कही थी। लोहिया का नारा था - ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावे सौ में 60’। भाषा के मामले में कम्युनिष्टों का स्तर भी बहुत नीचे तक आ गया है, जबकि वे पहले लाल किले पर लाल निशान मांग रहा है हिन्दुस्तान में ही संतोष कर लेते थे। उन नारों की तुलना में अब स्तर हो गया है - ‘देश का चौकीदार चोर है’। इसी कांग्रेस का नारा कभी यह होता था - ‘जात पर न पात पर, मोहर लगाना हाथ पर’।
नारे बाजी और भाषण का यह स्तर बताता है कि हमारे नेता मुद्दों की बात करने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप में ही अपनी उर्जा नष्ट कर रहे है। इसके लिए एक हद तक टीवी चैनल पर होने वाले शो भी जिम्मेदार है। जहां एक-दूसरे के खिलाफ बोलने की लिए एंकर उकसाते रहते है। नेताओं की अशालीन भाषा के लिए ये टीवी चैनल और मीडिया भी जिम्मेदार है।