भारत में हम लोग कहते हैं कि हम, भारत के नागरिक। लेकिन चीन में लोग कहते हैं कि हम वर्कर हैं। हाल ही में चीन के एक कुंठित नागरिक ने इस तरह का बयान एक अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी को दिया। सब जानते हैं कि चीन में कर्मचारियों की दशा बहुत ही खराब है। 12-12 घंटे का काम और बिना साप्ताहिक अवकाश के लगातार काम में जुते रहना। कर्मचारियों का वेतन इतना कम है कि ओवरटाइम के लालच में वे कभी छुट्टी नहीं लेते। कुछ औद्योगिक क्षेत्रों को छोड़ दें, तो चीन के बाकी औद्योगिक क्षेत्र में कोई भी दूसरा व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता। वहां जाने के लिए चीन के लोगों को भी परमिट लेना पड़ता है।
हाल ही में चीन पर बनी एक डाॅक्युमेंट्री फिल्म में यह बात सामने आई है। यह फिल्म वास्तव में खोजी पत्रकारिता का ही एक रूप है। फिल्म में जो बातें दिखाई गई है, उससे वहां के कर्मचारियों की स्थिति स्पष्ट होती है। ऐसी ही एक और फिल्म आई है प्लास्टिक चाइना। इस फिल्म में छोटे से रिसाइकलिंग प्लांट में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी बताई गई है। प्लास्टिक को फिर से रिसाइकिल करने के दौरान मजदूर कितनी मेहनत करते है। यह इस फिल्म में दिखाया गया है। एक और फिल्म आई है, जिसका नाम है डिस्टर्बिंग द पीस। इस फिल्म में बताया गया है कि चीन में घटिया क्वालिटी की स्कूल बिल्डिंग गिरने से सैकड़ों बच्चों की मौत हो गई थी, क्योंकि वह स्कूल बिल्डिंग भूकंप के झटके नहीं सह पाई।
इतना ही नहीं चीन से अमेरिका गए लोग भी पैसे बचाने के लिए बहुत से जतन कर रहे है। इनमें से कई मजदूर तो ऐसे है, जो टेंट में ही रहते है। अमेरिका के लगभग सभी प्रमुख शहरों में चाइना टाउन बने हुए है। अमेरिका में सबसे ज्यादा विदेशी मूल के लोग चीन के ही है। इन चाइना टाउन की हालत यह है कि वहां हजारों लोग पूरी जिंदगी उसी इलाके में बिता देते है। वहां रहने वाले कई लोग ऐसे भी है, जिन्हें चीनी के अलावा और कोई भाषा नहीं आती। अमेरिका में रहते हुए भी वे चीन के किसी दुरस्थ कस्बे के नागरिक की तरह जीवन बिता देते है।
चीन के हालात बताने वाली ऐसी फिल्में आमतौर पर बाहर नहीं आती। विदेश में रहने वाले चीनी कलाकार चोरी छुपे ऐसी फिल्में बनाते हैं और अंतरराष्ट्रीय समारोह में प्रदर्शित करते हैं। चीन की इस वास्तविकता से लोग परिचित नहीं है। चीन में वैश्विक सोशल मीडिया भी कार्य नहीं करता। चीन के अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म है, जहां तगड़ी सेंसरशिप है।
चीन की फॉक्सकॉन कंपनी विश्व की बड़ी कंपनियों के लिए जॉब वर्क करती है। ऐपल जैसी कंपनी के लिए यहीं से महंगे मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान तैयार होता है। आईफोन, आईपैड, प्ले स्टेशन, एक्स बॉक्स जैसे महीन पुर्जो की असेंबली लाइन में मजदूरों को 12-12 घंटे लगातार काम करना पड़ता है। जब भी कोई नया उत्पाद बाजार में आता है, तो यह कंपनी मजदूरों से हफ्तेभर में 120 घंटे तक काम कराती है। इसका मतलब यह हुआ कि यह मजदूर हर रोज 17-18 घंटे तक काम करते है। गलती करने पर मजदूरों को सबके सामने बुलाकर जलील किया जाता है। मजदूरों को कंपनी के कैम्पस में ही रहना पड़ता है। एक-एक कमरे में कई-कई लोग भरे रहते है। कदम-कदम पर सिक्योरिटी कैमरे हैं और गार्ड्स भी। इनके होस्टल की दशा जेलों से भी बदतर है। अगर कोई मजदूर बगावत के लिए सामने आता है, तो उसे सीधा पागलखाने भेज दिया जाता है।
हर साल दर्जनों मजदूर आत्महत्या कर लेते है। अब वहां के प्रशासन ने मजदूरों को आत्महत्या से रोकने के लिए खिड़कियों पर स्टील के रॉड लगा दिए हैं, ताकि वे कूद कर आत्महत्या नहीं कर पाए। इसके अलावा पूरे होस्टल को लोहे की जालियों से पैक कर दिया गया है, ताकि हवा आती रहे, लेकिन मजदूर बाहर न जाने पाए। आजकल कंपनी के प्रबंधन ने मजदूरों से इस तरह का शपथपत्र भरवाना शुरू कर दिया है कि वे आत्महत्या कभी नहीं करेंगे।
वहां काम करने वाले एक चौकीदार ने निजी बातचीत में डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता से कहा था कि मैं तो कब्रस्तान का चौकीदार हूं। इन फैक्ट्रियों की सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि वहां असेंबली लाइन में कर्मचारियों को खड़े होकर काम करना पड़ता है, क्योंकि प्रबंधन को लगता है कि अगर वे बैठ गए, तो उन्हें नींद आ जाएगी। वहां का प्रबंधन नौकरी देने से पहले सभी मजदूरों को लंबे-लंबे भाषण देता है और मजदूरों की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण बताता है और यह बताता है कि उनका इस तरह काम करना चीन के विकास के लिए कितना जरूरी है।
अगर आप चीन का कोई भी उत्पाद उपयोग में ला रहे है, तो हो सकता है कि उसमें ऐसे ही मजदूरों का खून और पसीना शामिल है। चीन भले ही खुद को दुनिया को कितनी भी बड़ी ताकत बना लें, लेकिन अपने मजदूरों के लिए वह कुछ विशेष नहीं कर रहा। दुनियाभर से कटे हुए यह मजदूर अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचा सकते।
चीन के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की दशा और भी खराब है। चीन में लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। उनकी जिम्मेदारी केवल अपने पतियों की सेवा करने तक सीमित थी, लेकिन अब उन्हें अपने परिवार के लिए पैसे भी कमाने पड़ते है। हाल यह है कि चीन में उन्हें फैक्ट्रियों में भी काम करना पड़ रहा है और घर में भी। वहां 90 प्रतिशत से अधिक महिलाएं घर संभालने के अलावा दफ्तरों और फैक्ट्रियों में काम भी करती हैं। गर्भवती महिलाओं को काम से निकालने और महिलाओं के यौन उत्पीड़न की शिकायतें भी आम हैं।
औद्योगिक घराने समझते है कि महिलाएं कभी विद्रोह नहीं करती, इसलिए महिलाओं को नौकरी देने में उन्हें सुविधा लगती है। महिलाओं को बड़ी-बड़ी सरायनुमा इमारतों के हॉल में सोने के लिए खाट उपलब्ध करा दी जाती है। ऐसी ही एक सराय में कुछ वर्ष पहले 20 हजार महिलाएं एक साथ बीमार पड़ी थी। सरकार ने उनकी बीमारी की खबर दबाने की भरपूर कोशिश की। फिर भी छन-छन कर कुछ ही खबरें बाहर जा पाई। वर्तमान में चीन में कामकाजी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है और अनुमान है कि 2020 तक चीन में कामकाजी महिलाओं की संख्या पुरूषों के मुकाबले 3 करोड़ अधिक होगी।