एमपी में जो सोचा नहीं, वह होगा, वीडियो देखें
पूरे एमपी के चुनाव को समझिए, सिर्फ एक वीडियो से
-क्या सचमुच सत्ता विरोधी लहर हावी है?
-भाजपा के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसके चेहरे पर चुनाव लड़ा जा सके?
-और मध्य प्रदेश में एंटी इंकम्बेंसी है और इस वजह से बीजेपी की तरफ से 3 मंत्रियों सहित 7 सांसद और एक महासचिव मैदान में उतार दिए गए
-चुनाव प्रचार के आखिरी दिन जबरदस्त बयान-- प्रियंका का बयां और सिंधिया का पलटवार, थोड़ा चौंकाने वाला ! ये बयानबाजी किस दिशा में चुनाव को ले जा रही है?
-रेवड़ी कल्चर से शुरू हुआ था
-भाषा का स्तर गिर गया, क्या जनता इससे प्रभावित होती है
-सिद्धांतों को भूल गए, कौन सी विचार धारा किसकी है, कोई बड़ी वैचारिक लड़ाई नहीं है
-बजरंग बली की एंट्री
-सिंधिया के कद को लेकर व्यंग्य ठीक नहीं
-1857 के लिए क्या ज्योतिरादित्य जवाबदार है?
-क्या 1975 की इमरजेंसी के लिए प्रियंका दोषी हैं?
-कमलनाथ और दिग्गी राजा के लिए आखिरी मौका है।17 November 2023
म.प्र. का ह्ययूमन डेवलपमेंट इंडेक्स चाहे जो हो, जनता के स्वास्थ्य की हालत बुरी है। नीम-हकीम दुकानें खोलकर बैठे हैं और लोगों का इलाज कर रहे हैं। इलाज कराने वालों में ज्यादातर अल्पशिक्षित और गरीब वर्ग के लोग हैं, इसलिए उनकी ओर देखने वाला कोई नहीं है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और प्रशासन को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि नीम-हकीम क्या कर रहे हैं? इन्दौर में विभिन्न बस्तियों का सर्वे करने पर पाया गया कि वहां नाई, कसाई, कबाड़ी, मैकेनिक, खतना करने वाले और मंजन बेचने वाले भी मेडिकल प्रेक्टिस कर रहे हैं और खुद को डॉक्टर बता रहे हैं। इन तथाकथित डॉक्टरों ने चिकित्सा के पेशे को ही मजाक बना रखा है और गरीब मरीजों को ऐसी-ऐसी दवाएं खिला रहे हैं, जिसके परिणाम जानलेवा हो सकते हैं। अगर इन्दौर जैसे शहर का यह हाल है, तो छोटे-छोेटे गाँवों का क्या हाल होगा?
जितना हो-हल्ला सॉफ्ट ड्रिंक की बोतलों को लेकर हो रहा है उससे लगता है कि हमें सॉफ्ट ड्रिंक पीने वालों की बहुत चिंता है। सांसद से लेकर मीडिया तक इस मुद्दे को उछाल रहे हैं। ऐसी ही चिंता स्वच्छ पानी और शुद्ध दूध को लेकर होती तो और अच्छा होता।
भारत में सॉफ्ट ड्रिंक पीने वालों की संख्या सीमित है। अमेरिका में लोग भजोन के साथ पानी की जगह सॉफ्ट ड्रिंक और जर्मनी में लोग पानी की जगह बियर पीते हैं। भारत में अगर लोगों को पीने का साफ पानी और शुद्ध दूध मिल जाए तो वे निहार हो जाएं। भारत में लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने कभी कोल्ड ड्रिंक चखा तक नहीं। भारत की एक बड़ी आबादी को पीने का पानी भी आसानी से उपलब्ध नहीं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है, लेकिन भारत में दूध पीने वालों की बुरी हालत है। कभी दूध में वाशिंग पावडर जैसे तत्व मिलाकर कृत्रिम दूध बनाने की खबरें आती हैं, तो कभी अशुद्ध पानी मिलाने की।
इन्दौर में राजपूत समाज के कुछ नेता आरक्षण की मांग को लेकर संभागायुक्त कार्यालय के सामनेधनरा देंगे। अब राजपूतों को भी आरक्षण चाहिए। इसके पहले ब्राह्मणों का एक वर्ग भी आरक्षण की मांग कर चुका है। ऐसे लोग भी हैं जो आरक्षण के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। लेकिन चूंकि देश में वोटों की राजनीति चलती है इसलिए आरक्षण का विरोध कोई भी खुलकर नहीं करता। नेताओं को लगता है कि आरक्षण का विरोध चुनाव में उन्हें महंगा पड़ेगा।
वास्तव में आरक्षण को लेकर किसी का भी विरोध नहीं है। विरोध है तो इस बात का कि आरक्षण युक्तयुक्त नहीं है। जो लोग क्रीमी लेयर में आ चुके हैं वे भी आरक्षण की मलाई खा रहे हैं। जो लोेग आरक्षण के सुपात्र हैं वे अभी भी उपेक्षित हैं। वास्तव में नेता लोग आरक्षण को युक्तियुक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरण के लिए आरक्षित कोटे से मेडिकल कॉलेज मेैं प्रवेश पाना आसान है लेकिन परीक्षा पास किए बिना कोई भी डॉक्टर नहीं बन सकता।
१६ दिसम्बर १९८८ को महान साहित्यकार और पत्रकार डॉ. प्रभाकर माचवे के संपादन में इंदौर से जिस चौथा संसार दैनिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था, वह आज एक वटवृक्ष बन गया है। इसमें श्री नरेश मेहता जैसे महान साहित्यकार-संपादक का भी पुण्य छिपा है। चौथा संसार सांध्य उसी की एक शाखा है। भारत में ऐसे अनेक अखबार समूह हैं, जो सांध्य दैनिक प्रकाशित करते हैं, लेकिन ऐसे अखबार शायद ही हों जो उसी नाम से शाम को भी नए रंग-रूप में संस्करण प्रकाशित करते हों। इस संदर्भ में कहना होगा कि आपका चौथा संसार यह बिरला प्रयोग कर रहा है।
आई.ए.एस. अधिकारी रमेश थेटे कोई अकेले अफसर नहीं, जिन्हें सुर्खियां सुरूर देती हैं। लिस्ट बनाने बैठे तो गोविन्द राघो खैरनार से लेकर किरण बेदी तक दर्जनों अफसरों की पेâहरिस्त बन सकती है। सुर्खियों में कौन रहना नहीं चाहता? अगर अफसर भी रहे तो इसमें गलत कुछ नहीं। पर आपत्ति तभी होती है, जब अफसरान अपना मूल काम छोड़कर ‘पत्रकारिता’ करने लग जाते हैं। आला अफसर के स्टेनो सरकारी फाइलों को तैयार करने के बजाय विज्ञप्तियोें के डिक्टेशन लेते हैं और अफसर उन विज्ञप्तियों के फोल्डर बनवा कर पत्रकारों को चाय पीने के लिए बुलाते हैं। संभाग और जिला मुख्यालयों में अखबार आला अफसर और उनकी बीवियों के फीता काटने की तस्वीरों से भरे होते हैं। व खेलवूâद की स्पर्धाओं की शोभा बढ़ाते हैं, शिक्षा संस्थाओें में शिरकत करते हैंऔर प्रशासनिक अनुभव के दिव्य ज्ञान का प्रकाश पैâलाते रहते हैं। उन्हें बुलाने वाले जानते हैं कि अफसर आएंगे तो दो या तीन कालम का फोटो तय।
ऐसे बिरले ही लोग होते हैं, जो अपनी मृत्यु के बाद अपने शरीर को दान में देने का इच्छा पत्र पहले ही लिख जाते हैं। रंगकर्मी और लेखक वसंत पोतदार ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। उन्होंने अपनी देह चिकित्सा महाविद्यालय को दान कर दी। देश के चिकित्सा महाविद्यालयों में मृत शरीरों की उपलब्धि इतनी कम है कि मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी शवों की कमी से परेशान हैं। शवों की चीरफाड़ के बिना अच्छे डॉक्टर बनना मुश्किल है। समाजसेवी नानाजी देशमुख ने एक संस्था भी बनाई है, जो मृत्यु उपरांत शरीर दान की परंपरा को बढ़ावा दे रही है। इसके बावजूद अपेक्षित संख्या में देह चिकित्सा महाविद्यालयों को नहीं मिलती।
पता नहीं, उमा भारती ने खंडन क्यों किया? क्या वे एंटी-पब्लिसिटी चाह रही थी? क्या वे समझ नहीं पा रही थी कि जिसे वे बदनामी समझती (या कहती) है, वह क्या वास्तव में बदनामी जैसी बात है? उमा भारती ने कहा था कि मैं गोविंदाचार्य से प्यार करती थीं।
भाजपा की नेता उमा भारती ने बीती रात इंदौर की रेसीडेंसी कोठी में छत पर सोने की इच्छा जताई थी, जिसे दिग्विजयसिंह की सरकार पूरी नहीं कर पाई। कितना दुर्भाग्यजनक है कि कोई भूतपूर्व मंत्री और भूतपूर्व (?) भावी मुख्यमंत्री सरकारी आरामगाह में छत पर सोने की इच्छा जताए और वह पूरी न हो पाए। छत पर सोने को लेकर हिन्दी फिल्मों में अनेक गाने चल पड़े हैं। इस खबर के साथ ही उन गानों की याद हो आई। उनमें से कुछ गाने तो ऐसे हैं, जिन्हें लिखना उचित नहीं होगा। छत हो और गर्मी का सीजन हो, बिजली की कटौती हो तो कौन छत पर नहीं सोना चाहेगा?
लोगों को अखबारों से शिकायत होती है कि वे बुरी खबरों से भरे पड़े हैं। दुर्घटनाएं, बलात्कार, हत्या, बढ़ती कीमतें, अव्यवस्था, बिजली कटौती आदि-आदि बातें अखबारों में ज्यादा स्थान पाती हैं। बची-खुची जगह नेता लोग ले उड़ते हैं, जिनकी विज्ञप्तियां और बयान छापे बिना अखबार वालों को भी चैन नहीं।
वास्तव में ऐसा है नहीं। अच्छी खबरें भी अखबारों में पूरा स्थान पाती हैं। मसलन क्या यह अच्छी खबर नहीं है कि इस बार इंदौर में स्वतंत्रता दिवस पर राजवाड़े पर रोशनी करने का जिम्मा किसी एक अधिकारी को नहीं सौंपा गया। अब तक एक खास विभाग के अधिकारी को इसका जिम्मा सौंपा जाता था और वह अधिकारी अपनी जेब से पैसे लगाकर राजवाड़ा को जगमगाता था। राजवाड़ा पर लगे झालर, बल्ब, हैलोजन आदि का खर्चा अधिकारी अपनी जेब से उठाता था। उस जेब में पैसा कहां से आता होगा, यह बताने की जरुरत नहीं है। स्वतंत्रता दिवस पर राजवाड़ा ऊपरी कमाई से रोशन नहीं होगा। एक और अच्छी खबर है कि मुंबई-दिल्ली की तरह यातायात पुलिस ने इलेक्ट्रॉनिक्स सिंगल्स लगाए हैं। इससे अनुशासनप्रिय वाहन चालकों को सुविधा हुई है और पुलिसकर्मियों को भी।