लोकसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली हो, लेकिन सबसे बड़ी विरोधी पार्टी तो वह है ही। एक ऐसी विरोधी पार्टी, जिसने सत्तारूढ़ दल के सामने सरेंडर कर रखा है। सत्ता ही जिस पार्टी का ऑक्सीजन है। बिना सत्ता के वह तड़पती रहती है और निर्जीव होकर इंतजार करती है कि कोई आएगा और उसे सत्ता का ऑक्सीजन मास्क पहना देगा। बहस करने के सारे मंच उसने छोड़ दिए है। विरोध के नाम पर वह कोई नीति तय नहीं कर पा रही। उसके तमाम नेता अंड-बंड बयान देते नजर आते है। देश की धड़कनों से अनजान कांग्रेस अभी भी मूर्खों के स्वर्ग में विचरण कर रही है, जिसके नेता ज़रा सी बात में हिम्मत हार जाते है। जहां सरकार की नीतियों का विरोध करना चाहिए, वहां वे विरोध की खानापूरी करते है।
कहावत है कि जब नाव को ज़मीन पर कहीं ले जाना होता है, तब उसे गाड़ी पर रखना पड़ता है, लेकिन जब गाड़ी को नदी के पार ले जाना हो, तब गाड़ी को नाव पर चढ़ाने की ज़रूरत होती है। आशय यह कि दिन सभी के आते हैं। एक दौर था, जब पी. चिदंबरम की तूती बोलती थी। वे मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में सबसे महत्वपूर्ण मंत्रियों में से थे। कभी गृह और वित्त मंत्रालय उनके अधीन था। अब चिदंबरम खुद गर्दिश में हैं। 2007 में हुए एक सौदे के मामले की जांच करते हुए सीबीआई ने पाया कि वित्त मंत्री के रूप में चिदंबरम ने जो कार्य किए, उनमें कई पेंच थे। सीबीआई के अनुसार चिदंबरम ने न केवल अपने बेटे कार्ती चिदंबरम को अनेक तरीके से फ़ायदा पहुंचाया, बल्कि उन लोगों को भी फायदा पहुंचाया, जो उनके समूह में शामिल थे। वित्त मंत्री की हैसियत से प्रवर्तन निदेशालय पी. चिदंबरम के ही हाथ में था। सीबीआई में दर्ज एफआईआर के अनुसार चिदंबरम ने 2007 में 307 करोड़ रुपये के विदेशी निवेश की धनराशि में काफी घपले किए। चिदंबरम पर गिरफ़्तारी की तलवार लटक रही है और प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई उनकी तलाश में है। उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट से आईएनएक्स मीडिया केस में राहत नहीं मिली थी और उसके बाद से ही चिदंबरम का कुछ पता नहीं है। 20 अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट ने इसी मामले में चिदंबरम की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी थी। इसके बाद चिदंबरम ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, लेकिन वहां उन्हें अभी तक कोई राहत नहीं मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में तुरंत सुनवाई से इनकार कर दिया है। अब इस मामले की सुनवाई शुक्रवार 23 अगस्त को हो सकती है। इससे पहले बुधवार सुबह तीन जजों की बेंच ने कहा था कि राहत से जुड़ी याचिका को मुख्य न्यायाधीश के सामने रखा जाए और सीजेआई रंजन गोगोई ही इस मामले में सुनवाई करेंगे। चिदंबरम के वकीलों की कोशिश थी कि इस मामले में बुधवार को ही सुनवाई हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में आम्रपाली ग्रुप के खिलाफ आदेश देते हुए रेरा का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया। जांच में यह पता चला कि अनिल कुमार शर्मा की आम्रपाली कंपनी ने फ्लैट खरीदे वाले 49 हजार लोगों के साथ धोखाधड़ी की और कंपनी की करोड़ों रुपये की धनराशि महेंद्र सिंह धोनी की कंपनी को दे दी, जबकि कानूनी रूप से वह ऐसा नहीं कर सकती थी। महेंद्र सिंह धोनी अभी सेना में दो माह के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। धोनी ही आम्रपाली ग्रुप के ब्रांड एंबेसेडर थे। महेंद्र सिंह धोनी और उनकी कंपनी ने आम्रपाली समूह से न केवल शेयर पूंजी प्राप्त की, बल्कि लाखों रुपये कंपनी खर्च के नाम पर भी लिया गया, इसके साथ ही नकद लेन-देन भी किया गया।
संजीव परसाई का व्यंग्य संग्रह बेहद अजीब नाम वाला है - हम बड़ी ‘ई’ वाले। एक बार तो समझ में नहीं आता, लेकिन संग्रह का 20वां व्यंग्य पढ़ो, तब समझ में आता है कि संजीव परसाई जी बड़ी ई वाले हैं (जैसे प्रकाश हिन्दुस्तानी बड़ी ई वाले हैं)। इस संग्रह के सभी व्यंग्य इतने हल्के-फुल्के है कि आप उन्हें किसी भी मूड में पढ़ सकते है। कुछ व्यंग्य आपको तिलमिलाते हैं, कुछ चिढ़ाते हैं और कुछ मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं। व्यंग्य के शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ कह देते हैं। हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य है - ‘प्रेम चंद के फटे जूते’। परसाई जी के भतीजे संजीव परसाई के एक व्यंग्य का शीर्षक है - ‘फटे जूते और बीड़ी’, एक और व्यंग्य का शीर्षक है - ‘लेखक बनना, होना व कहलाना’। इसी तरह मैं और फंटूश का प्यार, मैं कवि और तुम खामखां, कमोड पर बैठा लोकतंत्र, क्योंकि अब सबको बेस पसंद है, करीना ने कहा था, दास्ताने अफेयर जैसे दिलचस्प व्यंग्य इस संग्रह में है।
इस पर खुश न हों कि पाकिस्तान बर्बादी के कग़ार पर है। इमरान खान की चारों तरफ थू-थू हो रही है। पाकिस्तानी रुपया निम्नतम स्तर पर, निर्यात नीचे, विकास दर बेहद मामूली स्तर पर! महंगाई चरम पर, जनता में त्राहि-त्राहि ! लेकिन हमें इस पर खुश होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह भारत के हित में नहीं है।
शेयर बाज़ार धड़ाम, ऑटोमोबाइल सेक्टर में ऐतिहासिक मंदी, हाउसिंग में लाखों अनबिके मकान, विदेशी निवेशकों का पलायन, टैक्स की वसूली का पिछड़ता लक्ष्य, लाखों को रोज़गार खोने का डर... इस सबके बावजूद 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की बातें। उद्योग जगत को नरेन्द्र मोदी की सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा और दशा पर कई लोगों को संदेह है। अनेक उद्योगपतियों का मानना है कि यह सरकार अस्थिर आर्थिक नीतियों वाली है। सरकार खुद जो नीतियां बनाती हैं, उन पर टिकी नहीं रहती।
गत पांच अप्रैल को भाजपा के स्थापना दिवस के ठीक पहले ही भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा था - ''भाजपा ने शुरू से ही राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन नहीं माना। जो हमसे राजनीतिक तौर पर सहमत नहीं हैं, इन्हें देश विरोधी नहीं कहा।'' इसका आशय मीडिया के एक हिस्से ने इस तरह लगाया कि आडवाणी को देश में आपातकाल जैसे हालात लग रहे हैं। इस ब्लॉग पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने तत्काल ट्वीट किया था -"आडवाणी जी ने भाजपा की मूल भावना को व्यक्त किया है। विशेष रूप से, 'देश पहले, उसके बाद पार्टी और अंत में मैं ' के मंत्र को महत्वपूर्ण तरीके से रखा गया है। भाजपा कार्यकर्ता होने पर मुझे गर्व है और गर्व है कि आडवाणी जी जैसे महान लोगों ने इसे मजबूत किया है.''
नरेन्द्र मोदी कोई जम्मू-कश्मीर के वोटों से प्रधानमंत्री नहीं बने, वे पूरे देश से मिले वोटों के कारण प्रधानमंत्री बने हैं। इसलिए उन्हें जम्मू-कश्मीर के सीमित वोटों की उतनी आवश्यकता नहीं। वे यह बात जानते थे कि जम्मू-कश्मीर के बारे में उनका बड़ा फैसला देश सिर-आंखों पर लेगा और हुआ भी यही। पूरे देश में जिस तरह केन्द्र सरकार के फैसले का स्वागत हो रहा है। जगह-जगह मिठाइयां बांटी जा रही है, जश्न हो रहे हैं , उससे लगता है कि यह वाकई एक ऐतिहासिक दिन है। इससे सबसे ज़्यादा तकलीफ़ पाकिस्तान को है। पाकिस्तान की तरफ से कोशिश हो रही है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्ज़ा ख़त्म किये जाने को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे) और यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल (यूएनएससी) में चुनौती दी जाये और मानव अधिकारों का मुद्दा बना लिया जाए।
कांग्रेस में इस्तीफों का मानसून है, मान-मनोव्वल की झड़ियां लग रही हैं, पार्टी के संविधान के अनुसार कार्यसमिति किसी को स्थायी अध्यक्ष नियुक्त नहीं कर सकती। ख़ुशामद चल रही कि कोई गैर-गांधी अध्यक्ष नहीं चल पाएगा। यह सब उस पार्टी में हो रहा है, जिसका गौरवशाली अतीत रहा है।
जो नेता विरोधी पार्टी में रहते 'अनैतिक', 'अछूत' और भ्रष्ट माने जाते थे, भाजपा में शामिल होते ही वे 'पवित्र' हो जाते हैं। अब तो ये राज्यपाल जैसे पदों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं। विचित्र बात यह है कि मीडिया ऐसी दल-बदल की घटनाओं के बारे में कोई सैद्धांतिक आलोचना करने के बजाय इसे नेताओं का 'मास्टरस्ट्रोक' कहता है और पार्टी के नेताओं की तुलना चाणक्य से करने लगता है। कायदे से मीडिया को ऐसी अनैतिक गतिविधि के लिए प्रोत्साहित करने वाले नेताओं को हतोत्साहित करना चाहिए, लेकिन मीडिया दल-बदल की घटनाओं को मदारी का खेल समझता है।
स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है आपातकाल। 25 और 26 जून 1975 की रात को वह लागू किया गया था। करीब 21 महीने बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त घोषित किया गया। आपातकाल के दौरान चुनाव स्थगित हो गए थे और सभी नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। प्रेस की आजादी पर सेंसरशिप लग गई। सोशल मीडिया तो उस वक्त था नहीं, न ही इंटरनेट के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान हो सकता था। आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने मनमाने काम किए थे।