अपनी बात मनवाने और स्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए हिंसा की राजनीति का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। छिटपुट घटनाओं की शक्ल में भी और संगठित अभियान के रूप में भी। एक ओर पंजाब में उग्रवादियों की बंदूवेंâ मौत उगल रही हैं, तो दूसरी ओर मई के तीसरे सप्ताह में भिवंडी और बंबई में हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने कयामत बरपा कर दी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिक आग से झुलसे हिस्सों का दौरा करने के बाद कहा- गुनहगार बख्शे नहीं जाएंगे, लेकिन फिलहाल पहली जरुरत है शांति स्थापित करने की और लोगों के मन से भय और संदेह दूर करने की। प्रस्तुत है बंबई से प्रकाश हिन्दुसातनी की रपट।
बंबई और भिवंडी के दंगों में ये पंक्तियां लिखते वक्त तक १४६ व्यक्ति मारे जा चुके हैं। दो करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति नष्ट की जा चुकी है। एक हजार से ज्यादा घर जलाए जा चुके हैं। एक हजार से ज्यादा व्यक्ति घायल हुए हैं। आठ सौ से ज्यादा व्यक्ति गिरफ्तार हैं। भिवंडी के अलावा ठाणे, कल्याण, बंबई और नई बंबई में भी तनाव पैâला है।
मुस्लिम नेता शिवसेना को और शिवसेना उर्दू अखबारों को इसका जवाबदेह बता रहे हैं। विपक्षी दल सरकार पर दोष मढ़ रहे हैं। सरकार अफसरों पर, अफसर छोटे-छोटे पुलिस कर्मचारियों को निलंबित कर रहे हैं। कुछ कहते हैं कि इसके लिए अंतुले जवाबदेह हैं। पुलिस कमिश्नर और जिला कलेक्टर को बदलने की बातें हो रही हैं, कोई वसंत दादा पाटिल की सरकार से इस्तीफा देने के लिए कह रहा है, लेकिन कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं कर रहा है कि दंगे का असली जवाबदेह कौन है?
किसने की थी दंगे की शुरुआत? दंगे का कारण यह है कि बंबई के दो उर्दू अखबारों ने शिवसेना के अध्यक्ष बाल साहेब ठाकरे का चौपाटी पर दिया गया भाषण छापा था, जिसे पुणे के एक मराठी साप्ताहिक ने अनुवाद करके छाप दिया। मराठी अनुवाद पर तफान मचा और महाराष्ट्र के जिला मुख्यालय वाले नगर परभणी में ११ मई को मुसलमानों ने इंका के विधायक ए.आर. खान के नेतृत्व में जुलूस निकाला और बाल ठाकरे का पुतला जलाया, जिसे जूतों-चप्पलों की माला पहनाई गई थी।
ए.आर. खान की इस कार्रवाई से शिवसेना के कार्यकर्ता (जो अपने आप को शिवसैनिक कहते हैं) नाराज हो गए। उन्होंने भिवंडी में जुलूस निकाला। भिवंडी में शिवसेना के दफ्तर के पास कुछ मुसलमानों ने हरा झंडा लगा दिया। इससे शिव सैनिक और खफा हो गए। फिर लगातार बंबई बंद का दौर चला- १६, १७, १८ मई को। १६ मई को बंद का कोई खास प्रभाव नहीं था, लेकिन १७ मई को शिव सैनिकों ने पूरा मुंबई बंद करवा दिया। मध्य बंबई के सभी व्यावसायिक प्रतिष्ठान बंद करवा दिए गए। पूरा शहर अफवाहों का बाजार बन गया। अखबारों के दफ्तर में लोग परेशान हो गए। लोग पूछते रहे, ‘परेल में दंगा हुएला है किया?’, ‘लाल बाग में लफड़ा हुआ- सच है’, ‘एनी न्यूज अबाउट राइट्स?’, ‘क्या सा’ब, भिवंडी में दंगा हो गया?’
परेल (मध्य बंबई) में १६ और १७ मई को तनाव ज्यादा पैâल गया। १६ मई की रात ग्यारह बजे शिव सैनिकों ने पुलिस थाने के सामने परभणी के इंका विधायक खान का पुतला जलाया। इससे क्षेत्र में ज्यादा तनाव पैâल गया।
१७ मई की शाम को शिव सैनिकों ने बंबई में एन.एम. जोशी मार्ग से वलीं नाके तक मोर्चा निकाला। मोर्चे में आगे-आगे चलने वाले लोगों के हाथों में बैनर थे, जिन पर लिखा था- ‘परभणीतील देशद्रोही मुस्लिम प्रवृत्तियां निषेध असो’। यानी ‘परभणी के देशद्रोहियों का बहिष्कार करो’।
परभणी में बाल ठाकरे का पुतला इसलिए जलाया गया कि उन्होंने चौपाटी की एक सभा में कहा था कि मस्जिदों में लाउटस्पीकर नहीं होना चाहिए। वहां दिन निकलने के पहले ही इतना शोर किया जाता है कि और लोगों को परेशानी होती है। आरोप है कि उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद के बारे में भी कुछ आपत्तिजनक बातें कही थीं।
अगर वास्तव में श्री ठाकरे ने मुसलमानों के बारे में कोई आपत्तिजनक बात नहीं कही थी, तो उन्होंने इसका खंडन परभणी नगर में जुलूस निकलते ही क्यों नहीं कर दिया? उन्होंने इस खंडन के लिए १९ मई तक का इंतजार क्यों किया जब कि भिवंडी सेना को सौंपा जा चुका था।
बेशक, इस दंगे की जवाबदेही अगर किसी पर सबसे ज्यादा है तो वह शिवसेना पर है। इसके कई कारण हैं:
१. बाल ठाकरे ने आपत्तिजनक बयान दिया।
२. परभणी में निकाले गए जुलूस के खिलाफ बंबई में शिवसेना ने लगातार बंद आयोजित किया।
३. अंसारी बाग कांड के लिए अंसारी बाग के मालिक मोहम्मद इब्राहिम अंसारी ने रानाल गांव के सुधाकर पाटिल दादा को दोषी बताया है, जो शिव सैनिक हैं।
आश्चर्य है, इस सारे हादसे के बावजूद वसंत दादा पाटिल की सरकार ने बाल ठाकरे को गिरफ्तार नहीं किया है। दादा पाटिल के अनुसार बाल ठाकरे अपनी सफाई दे चुके हैं कि उन्होंने मोहम्मद साहब का अपमान नहीं किया। इसलिए उन पर कार्रवाई की कोई जरुरत नहीं है। उनका तर्वâ है कि वह इस बारे में बाल ठाकरे के भाषण का टेप सुनकर पैâसला करेंगे। यह टेप बाल ठाकरे ने खुद भिजवाया है। यदि बाल ठाकरे ने कोई आपत्तिजनक बात अपने भाषण में कही भी होगी तो क्या वह उसे उस टेप में रहने देंगे? आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री उन उर्दू और मराठी अखबारों के खिलाफ तो कार्रवाई कर रहे हैं, जिन्होंने बाल ठाकरे का बयान छापा, लेकिन उस व्यक्ति पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते, जिसके बयान पर तनाव पैदा हुआ।
भिवंडी में ४५ प्रतिशत हिन्दू और ५५ प्रतिशत मुसलमान हैं। वहां शिवसेना का प्रभुत्व आसानी से कायम हो सका क्योंकि यहां के हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना थी। संगठन के अगुआ के रूप में बाल ठाकरे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते।
अंतुले-आदिक घुरी से त्रस्त मुख्यमंत्री वसंत दादा पाटिल दो बड़े ही महत्वपूर्ण कदम उठाने से बचना चाहते हैं:
१. उन्होंने कहा है कि ‘अंसारी बाग कांड की न्यायिक जांच कराने की मैं कोई जरुरत नहीं समझता।’ आश्चर्य है, जिस राज्य में २७ अल्पसंख्यक लोगों को गुंडे जिंदा जला दें अगर वह घटना भी न्यायिक जांच के काबिल नहीं मानी जाती तो अल्पसंख्यकों की सुरक्षा खुदा ही कर सकता है, जबकि जम्हूरियत में जनता को खुदा पर नहीं, सरकार पर विश्वास रखना चाहिए, इसलिए इस कांड की न्यायिक जांच होनी ही चाहिए।
२. मुख्यमंत्री इंका के विधायक ए.आर. खान का (जिन्हें अंतुले से जुड़ा माना जाता है) बचाव कर रहे हैं। विधायक खान की जवाबदेही भी इन दंगों में ज्यादा है, क्योंकि परभणी में उन्होंने ही चिनगारी सुलगाई थी, भिवंडी आकर
उसी से दंगे भड़के। अगर दंगों को वास्तव में रोकना ही है तो किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाना चाहिए, चाहे वह सत्तारूढ़ दल का ही क्यों न हो।
१४ साल पहले १९७० में भिवंडी के दंगों में सवा सौ लोग मारे गए थे और दो हजार लोग घायल हुए थे। यह दंगा उसके मुकाबले छोटा जरुर लगता है, लेकिन जितनी बर्बरता इन दंगों में सामने आई है, वह पूरी मानवीय चेतना को हिलाकर रख देने वाली है। १९७० के बाद भिवंडी और समीप के कल्याण में शिवाजी जयंती पर जुलूस वगैरह निकालने पर रोक लगा दी गई थी। प्रशासन ने शायद मराठों को खुश करने के लिए इस वर्ष जुलूस निकालने की इजाजत दे दी। लोग कहते हैं कि वास्तव में दंगे उसी दिन (३ मई को) होने वाले थे, जो टल गए, लेकिन दंगों की तैयारी तभी हो चुकी थी।
प्रशासन की अक्षमता और तालमेल के अभाव ने दंगों को ज्यादा पैâलने का मौका दिया। भिवंडी में १८ मई को दंगों के अधिक भड़कते ही राज्य सरकार को सतर्वâ रहने के निर्देश दिल्ली से मिले थे, लेकिन कोई एहतियात नहीं बरती गई। नतीजा यह हुआ कि मुंबई और ठाणे भी दंगों की चपेट में आ गए। राज्य सरकार तो भिवंडी को सेना को सौंपने के बारे में भी अचकचाती रही। इंका के महामंत्री चंदूलाल चंद्राकर ने भिवंडी का दौरा करके पाया कि भिवंडी को सेना के सुपुर्द करने में देर की गई। गृह विभाग ने तो साफ-साफ निर्देश दिया था कि और ज्यादा सख्ती बरती जाए, लेकिन मुख्यमंत्री का नजरिया यह रहा कि हर जगह कफ्र्यू लगाना या सेना भेजना ठीक नहीं।
करीब दो लाख के भिवंडी में सीआरपी की १२ वंâपनी, सेना की दो बटालियन, विभिन्न जिलों के २०० पुलिसकर्मी, नियमित रहने वाला पुलिस बल और एक विशेष गृहसचिव तैनात है, लेकिन वहां आग अभी बुझी नहीं है। अभी राख के ढेर में चिनगारी है। उसे बुझने में वक्त लगेगा ही।
(दिनमान, 27 मई से 7 जून 1984)