नक्सलवादी हिंसा में विश्वास करते हैं और सरकार उसे दबाने में। इसलिए कोई भी आतंकवादी संगठन अपने उद्देश्य में, चाहे वह कितना भी उम्दा क्यों न हो, सफल नहीं हो सकता। नक्सलवाद का इतिहास इसलिए हिंसा और प्रतिहिंसा का टिमटिमाता हुआ इतिहास है। इसका सबसे ज्यादा फायदा जिला प्रशासन और स्थानीय शोषणतंत्र के लोग उठा रहे हैं। गांवों और पिछड़े इलाकों में जो भी सामाजिक और आर्थिक दामन के खिलाफ आवाज उठाता है या संगठित होता है उसके माथे पर ‘नक्सली’ का बिल्ला लगा कर ठंडा कर दिया जाता है।
महाराष्ट्र के गढ़चिरोली और चंद्रपुर के जंगली इलाकों का दौरा करने के बाद प्रकाश हिन्दुस्तानी ने जो कुछ देखा, सुना और पाया उसकी विस्तृत रपट पेश कर रहे हैं। साथ में है नक्सली नेता आनंद खेड़ेकर से भेंट।
गढ़चिरोली (महाराष्ट्र) जिले की आहेरी तहसील के कमलापुर गांव में २५-२६ फरवरी को आदिवासियों का एक सम्मेलन बुलाया गया था। आयोजन आदिवासी रैयतुकुली संघम (आदिवासी किसान संघ) कर रहा था, क्योंकि यह संघ नक्सलवादी आंदोलन से जुड़ा हुआ माना जाता है, इसलिए सरकारी कारिदों ने न सिर्पâ अनुमति नहीं दी, बल्कि बेगुनाह आदिवासियों और स्वागत समिति के सदस्यों को अपने दमन और आतंक की चपेट में ले लिया। कमलापुर के सम्मेलन में तीन राज्यों के छह जिलों से ३० हजार आदिवासियों के आने की संभावना थी। ये राज्य हैं महाराष्ट्र (चंद्रनगर और गढ़चिरोली), आंध्रप्रदेश (पश्चिम करीम नगर, वारंगल और आदिलाबाद) और मध्यप्रदेश (बस्तर)। आंध्र में रैयतुकुली संघम का अच्छा वर्चस्व है और सीपीआईएमएल से प्रभावित माना जाता है।
सर्व सम्मेलन के प्रचार में जो पर्चे बांटें गए थे, उनमें महाराष्ट्र के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की दशा का वर्णन था।
‘अपना जीवन बिताने के लिए जब वे जंगल से लकड़ी या बांस काटकर लाते हैं तब जंगलात के अफसर लोग उन पर अएत्याचार करते हैं। अपनी परंपरा के अनुसार महुआ या ताड़ी नासते हैं, तब उन पर पुलिस का जुल्म शुरू हो जाता है। उन पर जुर्माना लगाया जाता है। आंध्रप्रदेश से आए साहूकार भी हमारी हर चीज लूट लेते हैं।’
उनकी शिकायत है कि ‘गोंडों का वोट लेने नेता आते हैं, परंतु उनकी कठिनाई और गरीबी दूर करने पर कोई ध्यान नहीं देता।’ पर्चे में आगे कहा गया है : ‘इस प्रकार का कठिन जीवन बिताने वाली जनता को अंधकार के रास्ते से निकाल कर संघर्ष की रोशनी दिखाती है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी पीपुल्स वार)’।
‘इस पार्टी के नेतृत्व में कामरेड पेड्डी शंकर ने किसानों और मजदूरों के लिए संघर्ष किया, जिसे बड़े जमींदारों की सरकार ने गोली मार दी। (२ नवम्बर, १९८०)। उसके खून से आदिलाबाद और करीमनगर के किसान आंदगोलन को नए प्राण मिले और महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों को भी नया रास्ता मिला है। इससे पहले बीड़ी के ठेकेदारों से अपनी मजदूरी को तीन रुपए से बढ़वाकर सात रुपए करवाया है।’
कमलापुर में सम्मेलन स्थल का नाम कामरेड पेड्डी शंकर नगर रखा गया था। इस पर भी पुलिस और अन्य कुछ लोगों को आपत्ति थी, क्योंकि पेड्डी शंकर ‘घोषित नक्सलवादी’ था। प्रशासनिक अधिकारी सम्मेलन के पक्ष में नहीं थे, बावजूद इसके कि ४७ लोगों की जो स्वागत समिति बनी थी, उसमें कांग्रेस (समाजवादी), जनता पार्टी, लोकदल और इंदिरा कांग्रेस के भी नेता शरीक थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष एकनाथ साल्वे कांग्रेस (इं) के विधायक रह चुके हैं। स्वागत समिति के उपाध्यक्ष सुरेश खानाकर खुद विधायक हैं। समिति में दस लोग एडवोकेट थे।
६ फरवरी को स्वागत समिति के अध्यक्ष श्री साल्वे ने कलेक्टर से सभा करने और जुलूस निकालने की इजाजत मांगी और पूछने पर ९ फरवरी को साल्वे ने बताया कि यह सम्मेलन शांतिपूर्वक सभा करने और आदिवासियों की एकता के लिए किया जा रहा है। उन्होंने इस आशय का एक शपथपत्र भी पेश किया। इसके बाद रैयतुकुली संघम ने इधर अपने सम्मेलन की तैयारी शुरू कर दी और उधर प्रशासन ने अपनी। संघम ने गांवों में जाकर आदिवासियों से एक-एक रुपया, एक-एक सेर चावल और अन्य सामग्री जुटाना शुरू कर दिया।
सम्मेलन शुरू होने के दो दिन पहले ही चढ़चिरोली जिले की आहेरी, सिरोचा और एटापल्ली तहसील के क्षेत्र में बंबई पुलिस एक्ट के तहत निषेधाज्ञा जारी करके आतंक और दमन का सिलसिला शुरू कर दिया गया। आंध्रप्रदेश की ‘जननाट्य मंडली’ के ग्यारह सदस्यों को रास्ते में पकड़ लिया। उसमें तेलुगू के प्रख्यात कवि और गायक विट्ठल भाई गद्दर भी थे। इसके बाद आंध्रप्रदेश के एक भूतपूर्व विधायक और आदिवासी रैयतुकुली संघम के अध्यक्ष गंजी रामाराव, महासचिव श्री राघवेलु, कमलापुर सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष और सचिव तथा अन्य ग्यारह लोगों को भी कमलापुर के रास्ते में पकड़ लिया।
सम्मेलन के संयोजक दत्ता पांडरे का कहना था कि चारों और जबर्दस्त नाकेबंदी कर ली गई थी। पुलिस ने कमलापुर गांव के करीब-करीब सभी पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया। कुल साढ़े आठ सौ से ज्यादा गिरफ्तारियां की गर्इं। इनमें वकील, छात्र, शिक्षक, पत्रकार, किसान, मजदूर सभी वर्गों के लोग शामिल थे।
कमेटी फार प्रोटेक्शन ऑफ द डेमोव्रेâटिक राइट्स (सीपीडीआर) के युवा अभिभाषक संजय सिंघवी के अनुसार सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष एकनाथ साल्वे को पुलिस ने २३ फरवरी को चंद्रपुर के कोर्ट के परिसर में ही पकड़ लिया। वह उस वक्त वकील का चोगा पहने हुए थे। अगले दिन रिहाई के बाद उन्हें फिर पकड़ लिया गया। उनके खिलाफ आहेरी पुलिस थाने में कई मामले दर्ज किए गए।
सम्मेलन की स्वागत समिति के मंत्री वी.वी. शेखर का कहना है कि ‘चंद्रपुर के वकील कृष्णा रेड्डी को पुलिस ने नक्सली कहकर गिरफ्तार कर लिया और यह बयान अखबारों में छपवयाा कि पुलिस को एक हत्या के प्रकरण में चार साल से उनकी तलाश थी। ये सब बातें सपेâद झूठ हैं। श्री कृष्णा रेड्डी को महज इसलिए फांस लिया गया कि वह तेलुगूभाषी है।’
नागपुर की मध्यवर्ती जेल में यह संवाददाता गत ६ मार्च को अभिभाषक संजय सिंघवी और सुचेता मजूमदार के साथ कुमारी कला राव और लक्ष्मण पाटिल से मिला। कला राव बंबई में विद्यार्थी प्रगति संगठन की कार्यकर्ता हैं और लक्ष्मण पाटिल मिल मजदूर हैं तथा बंबई में नौजवान भारत सभा से संबद्ध हैं। ये सम्मेलन में शिरकत के लिए आए थे।
आलापल्ली गांव के एक ट्रक मालिक सरदार संपूर्णसिंह ने बताया कि पुलिस ने उन्हें इसलिए तंग किया कि उन्होंने अपना एक ट्रक संघम को भाड़े पर दिया था।
ट्रक में रखा और लाया गया माल कहां गया? इसके बारे में एक आदिवासी कार्यकर्ता ने बताया कि ‘हम लोगों ने ३० हजार लोगों के लिए चार वक्त के खाने का सारा इंतजाम करके रखा था। ३०० बोरे चावल, सात बोरे आलू और सात बोरे प्याज, दस डिब्बे मीठा तेल और दूसरी चीजें थीं। पुलिस और एसआरपी वाले वह सब ले गए और हमें उसकी जब्ती की कोई रसीद तक नहीं दी।’
सामान की जब्ती, गिरफ्तारी और मारपीट के बाद जीप में लाउडस्पीकर लगाकर पूरे क्षेत्र में ऐलान किया गया कि रैयतुकुली संघम के सम्मेलन पर सरकार ने रोक लगा दी है। जो लोग सम्मेलन कर रहे हैं वे नक्सलवादी हैं। कोई भी आदमी उस सम्मेलन में न आए, क्योंकि सम्मेलन होने पर पुलिस वहां गोली चलाएगी और बम फोड़ेगी। इसके बावजूद कमलापुर में करीब सात हजार लोग इकट्ठा हो गए। पुलिस की वहां तीन वंâपनियां थीं। आदिवासियों का जुलूस निकला। पुलिस ने उन लोगों को बंदूकों के वुंâदों से पीटा।
कमलापुर गांव के ही एक आदिवासी खेत-मजदूर ने बताया कि ‘पुलिस वालों ने इतना मारा कि तीन लाठियां टूट गर्इं उनकी।’ उसने अपने शरीर पर लगे चोट के निशान दिखाए और कहने लगा। ‘वे हमें और भी मारते, तो परवाह नहीं थी। वे जेल में बंद रखते और नहीं छोड़ते तब भी ठीक था, लेकिन हम को ऐसे डर-डरकर कब तक जीना पड़ेगा? हम आदमी लोग इस गांव में चूहे की तरह कब तक रहेंगे?’
उसकी आंखों में आक्रोश झांक रहा था, ‘साब, सम्मेलन होएगा ही।’
‘कब? दो-तीन महीने में’
‘तब तक हम रुवेंâगे नहीं। पर यह जरूर है कि हम इस बार इसका प्रचार नहीं करेंगे। बस’
गढ़चिरोली जिले में नक्सलवादियों की गतिविधियों को रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एक विशेष पुलिस अधीक्षक विद्याधर टिकले को नियुक्त किया है। वह आलापल्ली में डेरा डाले हुए हैं। इस संवाददाता का नाम, पता आदि नोट करने के बाद उन्होंने बताया : ‘हमें पक्की खबर मिली है कि इस क्षेत्र में नक्सलवादी सक्रिय हैं। कुल कितने नक्सलवादी हैं, हमें नहीं मालूम। अंदाजा है कि तीन-चार गुट हैं। वे लोग हथियार रखते हैं और जंगल, पुलिस और रेवेन्यू डिपार्टमेंट के लोगों को तंग करते हैं।’
गढ़चिरोली के कार्यवाहक पुलिस अधीक्षक वी.पी. चौधरी के अनुसार भी सम्मेलन करने वाले बंदूक की नली पर चंदा मांग रहे थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि पुलिस को ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली है, क्योंकि डर के मारे किसी की हिम्मत रिपोर्ट लिखाने की नहीं है।
‘पिछले एक साल में नक्सलवादियों ने हिंसा की कितनी वारदातें की हैं?’
‘शायद एक भी वारदात दर्ज नहीं है।’
गढ़चिरोली जिले के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट रत्नाकर गायकवाड़ ने भी यही बातें दोहरार्इं।
इस संवाददाता ने पता लगाया कि गत एक वर्ष में पूरी गढ़चिरोली जिले में नक्सलवादी कहे जाने वाले किसी भी संगठन के लोगों के नाम से हिंसा की कोई भी वारदात थाने में दर्ज नहीं है, लेकिन उन्हें रोकने के लिए २ उप-पुलिस अधीक्षक, ८ इंस्पेक्टर, २२ सब इंस्पेक्टर, २१७ पुलिस जवान और रिजर्व पुलिस की १२ वंâपनियां इन इलाकों में तैनात हैं।
रैयतुकुली संघम को भले ही कथित नक्सलवादियों का समर्थन रहा हो, लेकिन क्या ‘नक्सलवादी जिंदाबाद’ कहने भर से कोई नक्सलवादी हो जाता है और यदि कोई सरकारी कायदे-कानून से चले और अपनी विचारधारा का प्रचार करे तो वह काम गैरकानूनी नहीं है? अगर कमलापुर में सम्मेलन हो भी जाता है तो क्या होता? ३० हजार आदिवासियों को बंदूवेंâ तो मिलती नहीं और अगर नक्सलवादियों के ही नाम से कोई उन्हें संगठित और जागरुक करता है, तो भी। सरकार को नक्सली और गैरनक्सली में भेद कर सकना चाहिए।
(दिनमान : 15-21 अप्रैल 1984)
भूमिगत नक्सलवादी नेता आनंद खेड़ेकर से एक आदिवासी गांव में प्रकाश हिन्दुस्तानी की बातचीत
ठेकेदार किताब पढ़कर शोषण नहीं करता
आपका संबंध किस नक्सलवादी गुट से है?
किसी भी गुट से नहीं।
क्या इस क्षेत्र में नक्सलवादी सक्रिय हैं?
हां, हैं तो। पर इससे तकलीफ जनता को नहीं है। तकलीफ केवल उन लोगों को है जो अफसर हैं और जनता को फिजूल में तकलीफ देते हैं। ईमानदारी से काम करने वाले किसी आदमी को इससे तकलीफ नहीं है।
आपको नक्सलवादी-आतंकवादी नेता क्यों माना जाता है?
मूलरूप से मैं एक पत्रकार हूं- मैं नक्सलवादियों की गतिविधियों के बारे में शुरू से ही लिखता रहा हूं। इसी कारण सरकार ने मुझे भी नक्सलवादी मान लिया है। पर ऐसा नहीं है।
अखबारों में छपा है कि आप फरार हैं और पुलिस आपको खोज रही है?
अगर पुलिस मुझे खोज रही है तो मैं कोई अदृश्य आत्मा तो हूं नहीं। मैं तो घूमता-फिरता रहता हूं। मुझे तो कोई पकड़ता नहीं। मैं नागपुर भी घूमकर हाल ही में आया हूं। मैं फरार नहीं हूं, न ही मैं नक्सलवादी हूं। हां, अन्याय का प्रतिकार करना ही नक्सलवाद है, तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है। अगर शांति से Dयाय का प्रतिका नहीं होता है, तो थोड़ी-बहुत उठापटक तो करनी ही पड़ती है।
इस क्षेत्र की नक्सली गतिविधियों के बारे में कुछ बताएंगे?
ज्यादा तो मुझे भी मालूम नहीं। हां, चांदिया गांव में कुछ दिनों पहले नक्सलवादियों ने एक नायब-तहसीलदार को जरूर पीटा था। नायब-तहसीलदार ने एक कर्मचारी के साथ बलात्कार किया था। टेपनपल्ली गांव में एक रेंज फारेस्ट ऑफिसर को भी पीटा था, क्योंकि वह पब्लिक और स्टॉफ को बहुत तंग करता था। नक्सलवादियों ने किसी भी निरपराध आदमी को कभी नहीं तंग किया।
नक्सलवादियों की कोई और गतिविधि नहीं है?
नक्सलवादी कहे जाने वाले लोग पूरे इलाके के लोगों में जागृति और आत्मविश्वास का भाव पैदा कर रहे हैं। क्या किसी को संगठित करना गैरकानूनी या अपराध है? क्या लोगों को अपने अधिकारों को प्रति जागृत करने की प्रेरणा देना गुनाह है? यह काम तो सरकार का है कि वह लोगों को जागृत करें। आजादी के इतने साल बाद भी अगर आदिवासी जागृत नहीं हैं, तो किसका कसूर है?
कौन-कौन से हथियार हैं आपके पास?
मेरे पास तो कोई भी हथियार नहीं है, लेकिन जो लोग जंगल में घूमते हैं वे जानवरों से बचाव के लिए कुछ तो रखते ही होंगे, लेकिन वे लोग किसी को डराते-धमकाते हों, ऐसा नहीं है। वे लोग समूहगान गाते हुए गांव-गांव, जंगल-जंगल घूमते रहते हैं। यह कोई हिंसक या गैरकानूनी काम नहीं है।
यहीं क्षेत्र इन गतिविधियों का केन्द्र क्यों है?
यह आंध्रप्रदेश की सीमा का क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश में कुछ इलाका सरकार ने ‘डिस्टब्र्ड एरिया’ घोषित कर दिया है। इस कारण वे लोग वहां ज्यादा सक्रिय नहीं रह सकते। फिर इस पूरे इलाके में इतने घने जंगल हैं कि उनमें कोई भी छुप सकता है। इस जिले के जंगल उनके लिए वरदान साबित हुए हैं।
आपके खिलाफ किन-किन धाराओं में अपराध दर्ज हैं?
सच कहूं सा’ब? कुछ नहीं मालूम। दरअसल मैंने कुछ किया ही नहीं। अगर आप इस क्षेत्र में कुछ महीने रहें तो खुद समझ जाएंगे कि स्थिति क्या है। यहां गरीब आदिवासियों का जो शोषण हो रहा है उसे देखकर आत्मा कांप उठती है। कितनी बरी दशा है यहां लोगों की। वे संगठित नहीं हैं, इसलिए शोषण ज्यादा है। इस कारण बहुत जरूरी है कि हमारे जैसा कोई आदमी उनका नेतृत्व करें। मैं यही करना चाहता हूं और इसीलिए सरकार मुझे वैसा समझती है।
आप किस तरह का नेतृत्व देते हैं?
मैंने ६ अक्टूबर १९८३ से २२ अक्टूबर १९८३ तक एटापल्ली में एक आंदोलन चलाया था। हमारी मांग थी कि स्वूâल में शिक्षकों के खाली पद भरे जाएं। एटापल्ली के स्वूâल में केवल ३ शिक्षक थे, जबकि वहां करीब ढाई सौ बच्चे पढ़ते थे। हायर सेवंâडरी का रिजल्ट वहां यह था कि ३२ बच्चों में से केवल एक बच्चा पास हुआ था, वह भी थर्ड क्लास में। हमारे आंदोलन में मांग की गई कि स्वूâल की दशा सुधारी जाए, पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए और अंत में हमारी मांगें मान ली गई थीं। शिक्षकों और जनता ने हमें सहयोग दिया था, जिससे हमारा काम सफल हो गया।
तब आप गिरफ्तार हुए होंगे?
नहीं हुआ था। मैं अंडरग्राउंड हो गया था। तब मेरे साथ वी.वी. शेखर और खापणेडकर भी थे। उसके बाद भूतपूर्व एम.एल.ए. एकनाथ साल्वे साहब ने उपोषण (अनशन) किया। इससे पब्लिक का सरकार पर दबाव पड़ा और आंदोलन सफल हुआ।
क्या पहले कभी आप गिरफ्तार हुए हैं?
हां, एक बार हुआ था। एक और बार मुझे दफा ३५४ में पंâसवा दिया था। हुआ यह था कि यहां एक दारूभट्ठी का मालिक और ठेकेदार पत्तीवार। वह इंका नेता भी हैं। उसके द्वारा जंगलों की अवैध कटाई के खिला मैंने आवाज उठाई थी। तब उसने चिढ़कर होली के दिन एक किराए की औरत से मुझ पर इल्जाम लगवाया कि मैंने उसके साथ खराब सलूक किया। मेरे नाम से ५ बार सम्मन आए, पर मैं कोर्ट में हाजिर नहीं हो सका।
अंतत: मुझे गिरफ्तार होना पड़ा, लेकिन क्योंकि मैंने ऐसा कुछ काम किया ही नहीं था इसलिए कोर्ट ने मुझे निर्दोष पाकर छोड़ दिया। सालभर से भी कम समय में यह बात सिद्ध हो गई कि मैं बेकसूर था।
आपको किसी और भी मामले में पंâसाने की कोशिश की गई कभी?
हां, कई बार। थोड़े दिन पहले इस क्षेत्र में भगवान बुद्ध की प्रतिमा किसी ने खंडित कर दी थी। इंका नेता पत्तीवार ने मुझे उसमें पंâसाने की कोशिश की। वह इंदिरा कांग्रेस के नाम पर अफसरों को डराता-धमकाता है, लोगों के पसे हजम कर जाता है। इसके अलावा वह गलत लोगों को शरण देता है। वेटरनरी के एक डॉक्टर ने सेनाड़कर नाम के एक मास्टर को पीट-पीटकर मार डाला था। जब मैंने इस डॉक्टर की कारस्तानी लोगों को बताई और उसकी मुखालफत की तो पत्तीवार मुझसे चिढ़ गया। जब मैंने इसकी शिकायत कलेक्टर रत्नाकर गायकवाड़ से की तो उन्होंने कहा कि मैं चंद्रपुर में रहूं, न कि एटाल्ली में। मैंने कहा कि मैं अपना घर छोड़कर बाहर के गांव में क्यों रहूं? मैंने जब इस मामले की शिकायत की तो पुलिस ने इस दफा १०७ यानी आपसी झगड़े का मामला मानकर प्रकरण दर्ज कर लिया। मैंने कहा कि यह झगड़े का मामला नहीं है। पर मेरी एक न सुनी गई।
अपनी गतिविधियों का अंजाम आप खुद क्या समझते हैं?
सरकार तो आखिर सरकार है। वह हमें तो मिटाकर रहेगी। फिर हम अपना काम तो करते रहेंगे।
किसका दर्श आपने पढ़ा है? माक्र्स लेनिन, लोहिया...?
कुछ ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। किताबें पढ़ना अच्छा है, पर कुछ काम करना और भी अच्छा है। दुनिया भर के मजदूरों के बारे में बातचीत करने के बजाए अने ही इलाके के लोगों के लिए लड़ना और उनका नेतृत्व करना ज्यादा अच्छा है। कोई ठेकेदार किसी की किताब पढ़कर शोषण करता है क्या? वह तो बिना सिद्धांतों के काम करता है और हम उसके खिला लड़ाई लड़ने के नाम पर केवल किताबें पढ़ते रहते हैंं। यह तो कोई ठीक बात नहीं है।
सरकारी नियमों का पालन करके भी तो आदिवासियों को संगठित किया जा सकता है?
हां, पर बाबा आम्टे के समान। इसी क्षेत्र में बाबा आम्टे का आश्रम है हेमलकसा गांव में। आदिवासियों के नाम पर उन्होंने अपने आश्रम की एक दीवार बना रखी है और उस दीवार से बाहर के किसी आदिवासी से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है।
आप उनके काम को नकार नहीं सकते?
अगर उन्होंने इतनी जागृति ला दी है तो उनके आश्रम से एक किलोमीटर दूर ही नरबलि जैसी घटना क्यों होती है? आदिवासियों की जागृति के लिए नहीं, अपनी जय-जयकार के लिए वह काम करते हैं। २५ और २६ फरवरी को जब कमलापुर में आदिवासियों का सम्मेलन रखा गया था, तब उसे तोड़ने के लिए बाबा आम्टे ने हेमलकसा में उसी तारीख को दूसरा आदिवासी सम्मेलन रखा। उनके सम्मेलन में २०० आदिवासी भी नहीं गए, जबकि कमलापुर के सम्मेलन में, सरकार के विरोध के बावजूद, हजारों आदिवासी पहुंचे।