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पता नहीं, उमा भारती ने खंडन क्यों किया? क्या वे एंटी-पब्लिसिटी चाह रही थी? क्या वे समझ नहीं पा रही थी कि जिसे वे बदनामी समझती (या कहती) है, वह क्या वास्तव में बदनामी जैसी बात है? उमा भारती ने कहा था कि मैं गोविंदाचार्य से प्यार करती थीं।

पत्रिका ने उनकी बात छाप दी। उमा भारती बिदक गई और कहने लगी कि पत्रिका मुझे नाहक बदनाम कर रही है। मैंने तो इस पत्रिका से बात ही नहीं की। वे दिल्ली की आईएनएस बिल्डिंग में पत्रिका के दफ्तर के सामने धरने पर बैठ गई। टसुए बहाने लगी। संघ के बुजुर्गो का संदेश मिला तो धरने से उठ गई। समझ नहीं आया कि उमा भारती को आपत्ति किस बात पर थी। क्या आपत्ति पत्रिका पर थी? या फिर गोविन्दाचार्य पर? या फिर प्रेम से? ऐसा लगता है कि उन्हें सबसे ज्यादा आपत्ति प्रेम शब्द पर थी। 

 कहा जाता है कि सच्चे प्रेम में बहुत शक्ति होती है। अगर प्रेम सच्चा न हो तो अनर्थ हो जाता है। झूठा प्रेम ताकत को कमजोरी बना देता है। सच्चा प्रेम हो तो इंसान केवल प्रेम के सहारे दुनिया से लड़ सकता है।

प्रेम शाश्वत है और वह हर इन्सान करता है। पर बहुत कम ही लोग इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर पाते हैं। जब गांधीजी की शादी हुई थी, तब उन्हें प्रेम का अर्थ भी पता नहीं था। पर जब वे परिपक्व हुए, तब कस्तूरबा के साथ उनके संबंध सच्चे जीवनसाथी के रहे और आज हम बा के बिना बापू की कल्पना भी नहीं कर सकते।

ये वैâसा व्यक्तित्व है जहां पूजा घर ढहाने की बात पर बदनामी नहीं होती लेकिन प्रेम की बात करने पर बदनामी होती है। जब कोई पत्रिका अपने कवर पर रंगीन तस्वीर छापकर सेक्सी सन्यासिन लिखती है तो ऐतराज नहीं होता, लेकिन प्रेम की बात कहने पर हंगामा होता है। पद के मोह के कारण देश की सेवा का बहाना बनाकर संसद भवन में जाने और मंत्री बनने पर भी सन्यास का भाव बना रहता है, लेकिन प्रेम की बात मत छापिए क्यों?

आप इस दुनिया में सब कुछ छुपा सकते है। आप नफरत को छुपा सकते हैं। किसी से नफरत करते हों, पर बात होठों पर न आए। नफरत छुप सकती है क्योंकि वह उतनी ताकतवर नहीं। लेकिन प्रेम में बहुत ताकत है। प्रेम सामने आ ही जाता है। नफरत करने का काम दिमाग का है। प्रेम करने का काम दिल का है। दिमाग कोई भी काम नाप तौलकर कर सकता है। दिल के साथ ऐसा नहीं। जो कुछ भी दिल में हो, आ ही जाता है, कभी जुबान से कभी आँखों से कभी हाव-भाव से।

प्रेम करके उसे छुपाना साहस की नहीं, कमजोरी की निशानी है। किसी भी फलसपेâ में, किसी भी कानून में प्रेम अवांछित नहीं है। वर्जनीय है तो नफरत। क्या यह दुख की बात नहीं है कि नफरत पैâलाने की बात तो हम जोर शोर से करते हैं। ताल ठोंककर और गला फाड़कर करते हैं। और प्रेम की बातों से कन्नी काटते हैं। नफरत पैâलाने को तो शान की बात बना लिया है और प्रेम को शर्म की बात प्रेम के अमरत्व और अमृत स्वीकारने में इतनी हैठी? तौबा !

अगर उमा भारती का नाम गलत तरीके से किसी खास नेता के साथ उछाला गया होता तो आपत्ति जायज होती। वे खुद कह चुकी हैं गोविन्दाचार्य से रिश्तों के बारे में। किसी पत्रिका ने यह तो नहीं छापा कि उमा भारती के रिश्ते गोविन्दाचार्य से हैं। यह एक प्रेम और चाह की बात थी। वैसी बात नहीं जैसी टीना मुनीम (अंबानी) और राजेश खन्ना, शबाना आजमी और शेखर कपूर या रेखा और विनोद मेहरा तथा मुकेश अग्रवाल के रिश्तों में थी। यहां कोई राजेश खन्ना के साथ टूथ ब्रश करने जैसी बात नहीं छापी गई थी।

प्रेम को स्वीकारने वाला साहसी होता है। वह सम्मान का पात्र होता है। उसे नकारने वाला, सम्मान कापात्र हो या न हो, सहानुभूति का पात्र होता है। यही बात गोविन्दाचार्य पर भी लागू मानी जाए।

-प्रकाश हिन्दुस्तानी

सांध्य चौथा संसार (2001)

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