आई.ए.एस. अधिकारी रमेश थेटे कोई अकेले अफसर नहीं, जिन्हें सुर्खियां सुरूर देती हैं। लिस्ट बनाने बैठे तो गोविन्द राघो खैरनार से लेकर किरण बेदी तक दर्जनों अफसरों की पेâहरिस्त बन सकती है। सुर्खियों में कौन रहना नहीं चाहता? अगर अफसर भी रहे तो इसमें गलत कुछ नहीं। पर आपत्ति तभी होती है, जब अफसरान अपना मूल काम छोड़कर ‘पत्रकारिता’ करने लग जाते हैं। आला अफसर के स्टेनो सरकारी फाइलों को तैयार करने के बजाय विज्ञप्तियोें के डिक्टेशन लेते हैं और अफसर उन विज्ञप्तियों के फोल्डर बनवा कर पत्रकारों को चाय पीने के लिए बुलाते हैं। संभाग और जिला मुख्यालयों में अखबार आला अफसर और उनकी बीवियों के फीता काटने की तस्वीरों से भरे होते हैं। व खेलवूâद की स्पर्धाओं की शोभा बढ़ाते हैं, शिक्षा संस्थाओें में शिरकत करते हैंऔर प्रशासनिक अनुभव के दिव्य ज्ञान का प्रकाश पैâलाते रहते हैं। उन्हें बुलाने वाले जानते हैं कि अफसर आएंगे तो दो या तीन कालम का फोटो तय।
फिर रमेश थेटे जैसे अफसर होते हैं जो जानते हैं कि विधायक को लाठी मारने पर क्या होगा। आई.ए.एस. होने का अर्थ है आजीवन का पट्टा। कोई नेता और उद्योगपति तो क्या, वरिष्ठ अधिकारी भी चाहे तो ज्यादा बुरा कोई कर नहीं सकता। जबलपुर नगर निगम में आयुक्त रहते हुए रमेश थेटे ने अगर विधायक को लाठी दे मारी तो भी रमेश थेटे का किसी ने भी क्या बिगाड़ लिया? आगे जाकर उन्होंने स्थानीय नेताओं के खिलाफ प्रेस कान्प्रेâन्स भी की और अपनी पत्नी की वैâसेट कम्पनी के लिए गीत भी गाये। पद और सुर्खियों में रहने का सुरूर उन्हें नई-नई मंजिलों पर ले गया।
कानूनन प्रशासनिक सेवा का कोई भी अधिकारी प्रेस कान्प्रेâन्स बुलाना तो क्या, व्यक्तिगत उद्देश्यों की खातिर पत्र सम्पादक के नाम भी नहीं लिख सकता। लेकिन अफसर, पत्र और लेख तो क्या पुस्तवेंâ लिखते (और बिकवाते) हैं, गानों भजनों की वैâसेट तैयार करते हैं, माडलिंग करते हैं, तरह तरह के एन.जी.ओ. चलाते हैं।
अनुभव सिखाता है कि अखबारों की सुर्खियां अफसरों को कहीं का नहीं छोड़ती। जैसे ये अफसर मीडिया को अपने फायदे के लिए यूज करते हैं, वैसे मीडिया भी इन्हें यूज करता है। जो चतुर अफसर होते है वे मीडिया का सही समय पर उपयोग करके पतली गली से चुपचाप निकल जाते हैं। कुछ इसमें पंâसकर रह जाते हैं। जैसे मुम्बई महानगरपालिका के उपायुक्त गोविंद राघो खैरनार।
खैरनार मुम्बई महानगरपालिका के दर्जनों उपायुक्तों की तरह उपायुक्त थे। उनमें और आयुक्त में दो प्रशासकीय सीढ़ियों का अंतर था। उनका काम अतिक्रमण हटाना था, जो उन्होंने हटाए; मीडिया ने उन्हें हाथों हाथ उठाया। उन्हें दिलेर, जवांमर्द और न जाने क्या क्या पदवियां दे डालें। यहीं से उनका भटकाव शुरू हो गया। उनका ध्यान केवल उन अतिक्रमणों पर गया जो सुर्खियां बनते। रोज रोज की सुर्खियों से वे बौरा गए। उन्हें यह बात समझ में आई कि अंडरवल्र्ड सरगनाओं के खिलाफ कार्रवाई मीडिया में तवज्जो पाती है। उन्होंने वही किया। कुछ हिन्दूवादी नेताओं ने उन्हें सहारा दिया। वे जन जन के नायक बन गए। मीडियाकर्मी उन्हें घेरकर नेताओं के खिलाफ बयान लेने लगे। तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पंवार के बारे में उन्होंने कहा था कि मेरे पास उनके खिलाफ इतने सबूत है कि मैं उनसे पूरा एक ट्रक भर लूँ और शिवाजी पार्वâ में जनता जनार्दन के सामने पेश करूं। यह बयान बैनर के रूप में छपा। मसाला अच्छा लगा था, अखबारों ने सनसनीखेज खबरें छाप दी।
यह सिलसिला चलता रहा। कुछ माह बाद खैरनार निलम्बित थे। उनके ट्रक भर सबूतों में से वे कोई एक सबूत भी पेश नहीं कर पाए। पत्रिकाओं में बल्ले दिखाते हुए खैरनार के मुखपृष्ठ धुल खाने लगे। मीडिया के लिए खैरनार की महत्ता कम होती गई। निलम्बन के बाद खैरनार प्रेस से निराश थे। कुछ समय बाद उन्होंने कमाठीपुरा क्षेत्र की वैश्याओं का उद्धार करने का बीड़ा उठाया। करीब छ: सौ बंगाली युवतियों को कोलकाता जानेवाली ट्रेन में बैठा दिया गया, मगर युवतियां वापस कमाठीपुरा पहुंच गई। महाराष्ट्र में नई सरकार बनने के बाद खैरनार की बहाली हो गई। अब वे सामाजिक कार्यों की ओर प्रवृत्त हो गए हैं और आदिवासियों के पुनर्वास पर गुजरात में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, लेकिन मीडिया उन्हें अब उतना महत्वपूर्ण नहीं मानता क्योंकि वे मुख्यमंत्री के खिलाफ सबूत पेश करने जैसे बयान नहीं देते हैं।
मीडिया में छा जाने की आदत एक नशे की तरह होती है। वरिष्ठ अधिकारी इसके आदी हो जाते हैं। उन्हें खबरें बनवाने में मजा आने लगता है और वे जनता के अघोषित स्वयंभू मसीहा के रूप में खुद को पेश करने लगते हैं।
याद कीजिए उस किरण बेदी को, जो कभी दिल्ली में व्रेâन बेदी के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। आज दिल्ली शहर में ही उनके बराबर के ओहदे वाली एक दर्जन से ज्यादा आई.पी.एस. अधिकारी होंगी, लेकिन किरण बेदी ने सुर्खियों में जिकनी जगह पाई वह बेमिसाल है। वे वरिष्ठ अफसर तो हैं ही, विदुषी भी हैं, और सुर्खियों में रहने की कला में पारंगत भी। ये सुर्खियां उनके लिए नकारात्मक भी हो गई थी, जब पूर्वोत्तर के विश्वविद्यालय में उनकी बेटी को मेडिकल कॉलेज में एडमिशन दिया गया था। किरण बेदी की विशेषता है कि वे हर हाल में सुर्खियां बनवा सकती है। जब उन्हें तिहाड़ जेल का प्रभारी बनाया गया तब भी उन्होंने वैâदियों में वंâडोम बंटवा दिए थे, जिस कारण समलैगिंकता का मुद्द उठा और वे सुर्खियों में छा गई। उनकी किताबें, उन पर लिखी किताबें, उनकी वेबसाइट (जिसका उदघाटन महामहिम दलाई लामा ने किया था), उन पर बनी फिल्म - मीडिया का हर हिस्सा उन्होंने छुआ है। प्रिंट, टीवी, फिल्म, इन्टरनेट सभी पर वे छाई रही। लेकिन बहुत सकारात्मक तरीके से। इसी कारण वे ईष्र्या और अफसरान की भीतरी राजनीति का निशाना भी बनी। पर लगता है कि इतनी बड़ी प्रतिभा, महज सुर्खियों में खर्च हो रही है। देश में उनकी और बेहतर भूमिका हो सकती थी।
इन्दौर में कुछ अर्सा पहले एक अधिकारी अपनी अध्ययनशीलता, काव्यप्रेम और ईमानदारी की धाक जमा चुके थे। वे कुछ कर पाते इसके पहले ही अखबारों की सुर्खियां उन्हें लुभाने लगती। हाल यह हो गया कि जितना समय वे अपने दफ्तर के काम को देते, उससे कहीं ज्यादा समय उनका पत्रकारों के बीच कटता। पत्रकारों को वे बहुत पसंद आते थे, क्योंकि सरकार क्या करने जा रही है और वे खुद क्या कर रहे हैं, यह जानकारी देने वाली रेडीमेड विज्ञाप्तियां उनकी फाइलों में दबी रहती। कोई संवाददाता कभी उनके पास पहुंचता तो तत्काल विज्ञप्तियां थमा देते। शीर्षक चित्र परिचय और चित्र सहित पत्रकार बहुत खुश। जब तक वे रहे, पत्रकार उनसे उपकृत और वे उनसे। प्रशासन में ज्यादा चिंता यह रहती कि उनके नाम की खबर अखबारोँ में कितने कॉलम में छपेगी। जो विषय वे अपने खुद के नाम से नहीं उठा सकते थे, वे अपनी पत्नी के नाम से लेख लिखकर उठाने लगे। सुर्खियों के सुरूर में वे इतने खोये कि सही गलत से ज्यादा महत्वपूर्ण उन्हें अपने नाम को चमकाना लगता। खबर बनवाने की लत काअंजाम यह हुआ कि न्यायालय कीअवमानना कर बैठे। जब न्यायाधीशों ने समझाया तो वापस अपनी खोल में समा गए। अब उनका नाम सुर्खियों में नहीं आता, क्योंकि वे नौकरशाहों के जंगल में पहुंच गए हैं।
अखिल भारतीय सेवाओं से जुड़े प्रशासन पुलिस और राजस्व सेवा के अधिकारी नीति निर्णायकों और मीडिया के लोगों के बीच रहते रहते कभी कभी खुद नेता बन बैठते हैं। उन्हें भाषण देने में भी रास नहीं आता, लोगों से पैर छुआने में भी उन्हें हेठी लगती है। उन्हें अफसरी के रौब और कमाई से भी बढ़कर महामानव या सुपरस्ॉर का दर्जा पाने की हसरत होने लगती है। वे नेताओं की बुराइयां समेटनेवाले अफसर बन जाते हैं। दुर्भाग्यवश जब वे ईमानदारी से काम करते हैं तब लोग उनकी बोल्डनेस को ‘रेट बढ़वाने की भूमिका’ समझने लगते हैं। रमेश थेटे जैसे प्रकरणों से लोगों की धारणा को बल मिलता है और प्रशासन की छवि धूमिल होती है।
प्रकाश हिन्दुस्तानी
सांध्य चौथा संसार (2001)