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ऐसे बिरले ही लोग होते हैं, जो अपनी मृत्यु के बाद अपने शरीर को दान में देने का इच्छा पत्र पहले ही लिख जाते हैं। रंगकर्मी और लेखक वसंत पोतदार ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। उन्होंने अपनी देह चिकित्सा महाविद्यालय को दान कर दी। देश के चिकित्सा महाविद्यालयों में मृत शरीरों की उपलब्धि इतनी कम है कि मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी शवों की कमी से परेशान हैं। शवों की चीरफाड़ के बिना अच्छे डॉक्टर बनना मुश्किल है। समाजसेवी नानाजी देशमुख ने एक संस्था भी बनाई है, जो मृत्यु उपरांत शरीर दान की परंपरा को बढ़ावा दे रही है। इसके बावजूद अपेक्षित संख्या में देह चिकित्सा महाविद्यालयों को नहीं मिलती।

वसंत पोतदार को बहुत से लोग खब्ती मानते थे। वे जो सोचते थे, उसे बिना लाग लपेट के बोलने में संकोच नहीं करते थे। अगर उन्होंने ठान लिया कि देहदान उपयोगी कार्य है, तो वे उसे करके ही दम लेते। यह कार्य उनके परिजनों को रास आया हो, जरूरी नहीं है। पर ऐसे कितने लोग हैं, जो ऐसे निर्णय कर सकते हैं और उस पर अमल होने दे सकते हैं। जीते जी तो यह मनुष्य का कर्म और धर्म है। वास्तव में देखा जाए तो यह दिवंगत के परिवारजनों का निर्णय है, जिनमें इतना साहस होता है कि अपने किसी परिजन की अंतिम क्रिया समाजसेवा के इस रूप में करें।

वसंत पोतदार अक्खड़ और फक्कड़ किस्म के व्यक्ति थे। हजारों लोग उनके जैसा बनना चाहते होंगे, लेकिन बन पाते हैं बिरले ही। इस अक्खड़पन में एक अलग ही मस्ती थी, जिसे उन्होंने बड़ी कलात्मकता के साथ जिया। यह कलात्मकता उनकी मृत्यु के बाद भी रचनात्मक रूप में उपलब्ध रही। यह फख की बात हो सकती है। मृत्यु के बाद देह के विभिन्न उपयोगों के बारे में अलग-अलग मान्यताएं और संस्कार प्रचलन में हैं।

अनेक समुदायों में देह को नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है, ताकि पानी में रहने वाले विभिन्न जीवों को आहार उपलब्ध हो सके। पारसी समुदाय में मृत्यु के उपरांत देह को एक कुएं में रखने की परंपरा है, ताकि पक्षी उस देह को आहार बना सवेंâ। निश्चित ही समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि देह त्यागने के बाद भी वह किसी और के काम की हो सकती है। सनातन धर्म में तो देह को संस्कारित किया जाता है, जिसके बिना मुक्ति संभव नहीं। निराशा के इस दौर में भी यह बात आशाजनक है कि कई लोग सीमाओं को त्यागकर दूसरों का हित सोचते हैं।

 

-प्रकाश हिन्दुस्तानी

१ मई २००३

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