उज्जैन मेंं ७ सितंबर १९५२ को जन्मे आलोक मेहता करीब ४२ साल से पत्रकारिता में सक्रिय हैं, लेकिन आज भी वे अपने आपको पत्रकारिता का विद्यार्थी ही कहते हैं। उन्होंने १६ साल की उम्र में ही नई दुनिया से अपनी पत्रकारिता का जीवन शुरू किया और उसके बाद १९६९ में दिल्ली में समाचार एजेंसी हिन्दुस्तान समाचार में कार्य किया। उसके बाद उन्होंने एक के बाद एक अनेक प्रकाशनों और प्रसारण माध्यमों में कार्य किया। वे लगभग सभी प्रतिष्ठित हिन्दी समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। २००९ में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से भी सम्मानित किया था।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ्के अध्यक्ष और महासचिव रह चुके आलोक मेहता हिन्दी आउटलुक, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, नईदुनिया, दैनिक भास्कर, नेशनल दुनिया, हिन्दी सम्पादक डोइचे वेले (वाइस ऑफ जर्मनी) कोलोन और वंâसल्टिंग कोऑर्डिनेटिंग एडिटर हिन्दी वॉइस ऑफ अमेरिका, रेडियो और वेबसाइट के सम्पादक रह चुके हैं। २००२ में उन्होंने ९० प्रतिशत हिन्दी मूल सामग्री के साथ आउटलुक शुरू किया। २००८ में उन्होंने दिल्ली में दैनिक नईदुनिया और संडे नईदुनिया मैग्जिन लांच की। नईदुनिया का संडे एडिशन सात राज्यों शुरू करने का श्रेय भी उन्हें ही है। वे नवभारत टाइम्स दिल्ली में चीफ ऑफ न्यूज सर्विस और चीफ ऑफ ब्यूरो रह चुके हैं। नवभारत टाइम्स पटना उन्होंने ही शुरू किया था। दिनमान और नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता रहे हैं। १९७१ से १९७५ तक उन्होंने हिन्दुस्तान समाचार, संवाद एजेंसी में संसदीय संवाददाता की भूमिका निभाई। इसके बाद १९७६ से १९७९ तक साप्ताहिक हिन्दुस्तान में कार्य किया। नईदुनिया के स्ट्रींगर के रूप में पत्रकारिता शुरू करने वाले आलोक मेहता भले ही कई अखबारों में सम्पादक रहे हों, आज भी लोग उन्हें उनकी पुरानी रिपोा\टग के लिए याद करते हैं। नवभारत टाइम्स में उन्होंने चन्द्रा स्वामी, राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह, प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, आतंकवाद और विश्व हिन्दी परिषद को फायनेंस करने जैसे मुद्दों पर रिपोर्टिंग के लिए याद करते हैं। ऐसे मौके भी आए, जब उन्हें कानूनी कार्रवाई की धमकी दी गई। कई बार यह कह कर धमकाया गया कि उन्हें ट्रक से कुचलकर मार दिया जाएगा। अटलबिहारी वाजपेयी को भारतीय जनता पार्टी का मुखौटा बताने वाली गोविंदाचार्य की डायरी उन्होंने ही उजागर की थी, जिससे भारतीय जनता पार्टी के सामने परेशानियां खड़ी हुर्इं। सम्पादक के रूप में आउटलुक पत्रिका में उन्हें बाबा रामदेव की दवाओं और कारोबार से जुड़े कई खुलासे किए। ताज कॉरिडोर और मायावती सरकार के कई घोटाले सामने लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। बाबरी ढांचे को ढहाने में भारतीय जनता पार्टी की भूमिका का खुलासा भी उन्होंने ही किया था। जब उन्होंने बाबा रामदेव की दवाइयों में मानव हड्डी के इस्तेमाल की खबर छापी थी, तब उन्हें ५०० करोड़ रुपए की क्षतिपूर्ति का लीगल नोटिस दिया था। नईदुनिया के सम्पादक होते हुए उन्होंने पूर्व मंत्री शांतिभूषण की इलाहबाद की करोड़ों की सम्पत्ति के बारे में खुलासे किए थे। एडिटर्स गिल्ट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद पर ५० साल से अंग्रेजी सम्पादकों के वर्चस्व को उन्होंने तोड़ा और वे उसके अध्यक्ष बने। दो साल तक अध्यक्ष पर रहने वाले आलोक मेहता एडिटर्स गिल्ड के सचिव के रूप में भी चार साल तक सेवाएं दे चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अधिकारी ब्रदर्स के मीडिया डिविजन से जुड़ी पाक्षिक ‘गवर्नेंस नाऊ’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका अंग्रेजी में पहले से प्रकाशित होती है। इस पत्रिका में का मुख्य विषय नौकरशाही और प्रशासन से जुड़े मुद्दे हैं।
एक पत्रकार के रूप में आलोक मेहता ने अनेक महत्वपूर्ण लोगों के इंटरव्यू किए जो चर्चा में रहे। इनमें श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, आर. वेंकटरमन, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, एपीजे अब्दुल कलाम, आईके गुजराल, नरसिंह राव, अटलबिहारी वाजपेयी, मनमोहनसिंह, श्रीमती प्रतिभा पाटिल, ओलेफ पाल्मे, हेल्मुठ कोल आदि हस्तियां शामिल हैं। अपने पत्रकारीय जीवन में भारतीय प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के साथ अनेक देशों की यात्रा की। इन देशों में यूएसए, चीन, रूस, इंग्लैंड, प्रâांस, इटली, स्विटजरलैंड, जापान, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, क्यूबा, अर्जेंटिना, ईरान, मिस्र, घाना, तंजानिया, बुर्कीनाफासो, ग्रीस, चेक गणराज्य, पोलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, भूटान आदि शामिल हैं। विक्रम विश्वविद्याल उन्हें डी-लिट् की उपाधि से सम्मानित कर चुका है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के गणेशशंकर विद्यार्थी अवार्ड और भारत सरकार के भारतेंदु हरिश्चन्द्र अवार्ड भी उन्हें मिल चुके हैं। उन्हें प्राप्त सम्मानोें की सूची काफी बड़ी है। अनेक राष्ट्रीय चैनलों पर वे बौद्धिक चर्चा कार्यक्रमों में शामिल होते रहते हैं।
जब आउटलुक पत्रिका हिन्दी में प्रकाशित होना शुरू हुई, तब लोगों के मन में तरह-तरह की आशंकाएं थी, लेकिन आलोक मेहता ने हिन्दी आउटलुक को सफलतापूर्वक सम्पादित करके दिखाया। जब विनय छजलानी ने नईदुनिया के विस्तार की योजनाएं बनाई तब उन्होंने आलोक मेहता से नईदुनिया से जुड़ने का आग्रह किया, जिसे चुनौती मानकर आलोक मेहता ने स्वीकार किया। प्रबंधन की असफलता के चलते नईदुनिया समूह को दैनिक जागरण ने अधिग्रहित कर लिया। आलोक मेहता के प्रधान सम्पादन में जब नईदुनिया का लांचिंग दिल्ली में हुआ, तब उसमें लगभग सभी क्षेत्रों के विशेष लोग मौजूद थे। अरुणा राय, शुभा मुद्गल, जावेद अ़ख्तर, गुल़जार, मुलायमसिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, दिग्विजयिंसह, शीला दीक्षित, अम्बिका सोनी, अर्जुनसिंह जैसे लोग मौजूद थे, लेकिन राजनीतिज्ञोें को दर्शकों के साथ बैठने की जगह दी गई और अरुणा राय, शुभा मुद्गल, जावेद अ़ख्तर जैसे लोगों को स्टेज पर बैठाया गया। उस कार्यक्रम में आलोक मेहता ने अपने भाषण में नेताओं से कहा था कि आप इस कार्यक्रम में आए, हम आपके आभारी हैं, लेकिन हमारे अखबार में अगर आपके खिलाफ कोई खबर छपने के लिए आएगी तो हम उसे रोवेंâगे नहीं। यहां आपकी खातिरदारी में हम कहीं भी कोई भी कमी नहीं रखनेवाले, लेकिन जब बात पत्रकारिता की होगी तब हम निष्पक्ष रूप से खबर प्रकाशित करेंगे।
जब आलोक मेहता पटना में नवभारत टाइम्स के सम्पादक तब उन्होंने कई प्रयोग किए। प्रयोगों का यह सिलसिला आज भी जारी है। उन्होंने नईदुनिया के प्रधान सम्पादक के रूप में हिन्दी पत्रकारिता में पहली बार हेल्थ एडिटर और लीगल एडिटर जैसे पद कायम किए। उनकी राय में हेल्थ एडिटर को इस तरह होना चाहिए था कि वह मेडिकल प्रोपेâशन को भी समझे और डॉक्टरों के जीवन सम्पर्वâ में भी हो। नईदुनिया में ही उन्होंने डिप्लोमेटिक मामलों के लिए अलग से डिप्लोमेटिक एडिटर का पद भी बनाया। उनका फार्मूला है कि जो खबरें हल्की-पुुल्की होती है, उन्हें हल्के-पुल्के अंदाज में प्रकाशित करना चाहिए, लेकिन जो खबरें गंभीर किस्म की होती है, उन्हें वैसा ही सीरियस ट्रीटमेंट मिलना चाहिए। अगर परमाणु ऊर्जा की बात हो रही है तो हमें खबर को बगैर विचार किए प्रकाशित नहीं करना चाहिए। पहले उस खबर का पूरा परीक्षण होना चाहिए, उसके फायदे जांचना चाहिए, उसके नुकसान पर विचार होना चाहिए और फिर उस खबर का प्रकाशन सभी पहलुओं के साथ होना चाहिए।
आलोक मेहता ने अनेक महत्वपूर्ण और जाने-पहचाने सम्पादकों के साथ अलग-अलग पदों पर काम किया, जिनमें राजेन्द्र माथुर, अभय छजलानी, मनोहरश्याम जोशी, विनोद मेहता, कन्हैयालाल नन्दन शामिल हैं। उनका यह मानना है कि वे ही सम्पादक ज्यादा सफल होते हैं, जो विश्वसनीयता का ध्यान रखते हैं। विश्वसनीयता के साथ ही बहुत जरूरी है सही मुद्दों को प्रकाशित करना। आलोक मेहता ने अपने पत्रकारीय जीवन में राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों को तो उठाया ही, स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी पूरा महत्व दिया। चाहे वह भारत की परमाणु नीति हो, पड़ोसी देशों से संबंध हो या मेला ढोने की प्रथा। आलोक मेहता ने अपने सम्पादन में छपने वाले अखबारों में पैâशन शो जैसे इवेंट की घटनाएं, धार्मिक आयोजन आदि को भी पूरा मौका दिया।
आलोक मेहता एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के भी अध्यक्ष रहे हैं। इस पद पर रहते हुए उन्होंने पेड वंâटेंट को लेकर काफी गंभीर टिप्पणियां की है। जब विधानसभा चुनाव के दौरान पेड न्यूज का चलन शुरू हुआ तब आलोक मेहता ने मीडिया की बीमारी करार दिया। उन्होंने इसा बात पर आपत्ति ली कि एक ही अखबार दो-दो पार्टियों से पैसे ले ले और दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवारों की जीत की खबरें प्रकाशित करें। धार्मिक आयोजनों, राजनीति समारोहों और फिल्म समीक्षा के प्रकाशन के पहले जिस तथाकथित लिफाफा कल्चर की शुरूआत हुई थी, उसे आलोक मेहता ने हमेशा नापसंद किया। उनकी राय में अखबार मालिकों को यह लगता था कि अगर हमारे पत्रकार बेईमान हो गए और वे असत्य खबरें प्रकाशित कर रहें है तो हमारे बेईमान होने से भी क्या फर्वâ पड़ेगा? पहले न्यूज प्रिंट के जरिए भ्रष्टाचार के माध्यम से पैसा मिल जाता था, बाद में पेड न्यूज छपनी लग गई। सरकारों की प्रशंसा के जरिए अखबार मालिक बिजनेस में मदद लेने लगे। जब निजीकरण का दौर आया, तब पेड न्यूज की बेईमानी और बढ़ गई।
आलोक मेहता की योजना है कि आगे जाकर वे उन मालिकों को बेनकाब करेंगे जो अपने संसाधनों का उपयोग गलत तरीके से कर रहे हों। उनका कहना है कि अगर कोई व्यक्ति अफीम की तस्करी कर रहा है और आप उसका समर्थन करते हैं, वह आपको पैसा देता है और आप उस अफीम तस्कर के खिलाफ कार्रवाई करने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से ऐसे समाचार छापते हैं, जिससे वह अधिकारी परेशानी पड़ जाए तो यह भी एक तरह का भारी भ्रष्टाचार है। कई क्षेत्रीय अखबार मालिक और पत्रकार तबादलों में पैसा खाते हैं। पत्रकारिता में यह बीमारी कोई नही है। राम के समय भी रावण था और कृष्ण के समय में भी वंâस था। १९२६ में भी गांधी जी ने एक समारोह में कहा था कि अखबारों पर भरोसा मत करो।
आलोक मेहता का मानना है कि चुनाव आयोग को उम्मीदवारों द्वारा किए जा रहे चुनाव प्रचार खर्च को बढ़ाना चाहिए। अगर उम्मीदवार का प्रचार नहीं होगा तो लोग उसे जानेगे वैâसे? अब उम्मीदवार खर्च को दिखा नहीं सकता, इसलिए वह गलत रास्ता अपनाता है और पेड न्यूज के रूप में अपना प्रचार करवाना पसंद करता है। इस कारण यह हाल है कि लोग अपने-अपने इलाके के सांसद और विधायक का नाम भी नहीं जानते हैं। आलोक मेहता का ख्याल है कि चुनाव आयोग प्रजातंत्र की भलाई के लिए चुनाव आयोग के दिशा में कदम उठाना चाहिए। क्योंकि आमतौर पर राजनैतिक पार्टियों के दूसरे लोग विज्ञापन छपवाते हैं, लेकिन चुनाव के समय ही यह बंधन कड़ा हो जाता है। हमारे देश में जितनी आजादी मीडिया को है, कहीं भी इतनी आजादी नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया इस आजादी का दुरुपयोग करता है। वह न केवल निजी पार्टियों के कवरेज पैसे लेकर छापता है, बल्कि अश्लील सामग्री भी छापने से गुरेज नहीं करता है। टाइम्स ऑफ इंडिया के चंडीगढ़ संस्करण में न्यूड फोटो छापा तो प्रेस काउंसिल ने आपत्ति की, लेकिन इस अखबार ने उसका जवाब तक देना उचित नहीं समझा। अब प्रेस काउंसिल के पास तो कोई अधिकार है नहीं।
ऑडिट ब्यूरो ऑफ सक्र्युलेशन के बारे में आलोक मेहता को यह बात उचित नहीं लगती कि वह केवल अखबारों के प्रिंट ऑर्डर का ही हिसाब रखता है। एक इंटरव्यू में उन्होेंने कहा- दिल्ली में ही देखिए, कई अखबार छपते ही टेम्पों में भरकर डम्प करने के लिए गोदामों में भेज दिया जाता है। आलोक मेहता राजेन्द्र माथुर के हवाले से कहते हैं कि दिल्ली से छपने वाले अखबार वैâसे राष्ट्रीय हो गए और दिल्ली के बाहर छपने वाले अखबार राष्ट्रीय क्यों नहीं? राजेन्द्र माथुर जब नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक बने तब उन्होंने कहा था कि हर हिन्दी भाषी जिले का अपना अखबार हो सकता है। उन्होंने नवभारत टाइम्स के लखनऊ, पटना और जयपुर संस्करण शुरू करवाए। भोपाल से संस्करण शुरू करने की तैयारी भी की, लेकिन उनके जाते ही प्रादेशिक राजधानियों के संस्करण बंद कर दिए गए। आज दैनिक भास्कर, पत्रिका, अमर उजाला और प्रभात खबर जैसे अखबार छोटे-छोटे शहरों से संस्करण निकलकर लोकप्रियता की नई मिसाल कायम किए हुए है।
इमरजेंसी के दिनों में आलोक मेहता ने अनेक ऐसी घटनाएं उजागर की जिससे इंदिरा गांधी की सरकार को विचार करना पड़ा। ग्रामीण इलाकों में परिवार कल्याण के कार्यक्रमों को लागू कराने के लिए जो दबाव डाले गए थे, उन्हें खुलकर उजागर किया गया। आलोक मेहता ने ऐसी रिपोर्टिंग तो की ही, साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से सम्पर्वâ किया और उन्हें सच्चाई बताई। और कोई पत्रकार होता तो शायद वह सलाखों के पीछे पहुंच जाता। मीडिया की बदनामी के बारे में उनका कहना है कि अगर आप एक लाख रुपए का सूट पहनते हैं और उस पर दाग लग जाए तो लोग कहेंगे कि सूट खराब हो गया है, यही हाल मीडिया का है। १०० लोग अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन अगर पांच लोग गलत काम करते हैं तो सभी लोगों के काम पर उंगली उठाई जाती है।
१३ दिसम्बर १९९८ को प्रकाशित ‘कहां, कितना गहरा है, भ्रष्टाचार का दलदल’ शीर्षक लेख में आलोक मेहता ने नासूर बन रहे भ्रष्टाचार के बारे में कलम उठाई है। इस लेख के प्रमुख अंश :
भ्रष्टाचार का दलदल कहां गहरा है? बोफोर्स, यूरिया, मिराज, चेक पिस्तौल, टेलीफोन उपकरण, चीनी, प्याज की खरीद जैसे अनेक पैâसलों पर केन्द्र सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। जिस प्रधानमंत्री या मंत्री का कार्यकाल जितना अधिक रहा, आरोपों की सूची उसी अनुपात से बढ़ती रही। यों देवगौड़ा या गुजराल अल्पावधि के लिए ही सत्ता में रहे, लेकिन आरोपों से बच नहीं पाए।
दिल्ली के साउथ ब्लाक से कई गुना अधिक भ्रष्ट दलदल बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु के सचिवालयों एवं जिला कार्यालयों के इर्द-गिर्द रहता है। बोफोर्स या यूरिया से कई हजार गुना अधिक धनराशि की हेरा-पेâरी साधारण पशुओं के चारे और दवाई के खर्चे में हो गई। सर्वाधिक पिछड़े राज्य के गरीब लोग और उनके पशु भला क्या मुंह खोलते? इसी तरह उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश में अशुद्ध पानी वाले नलवूâप लगाने या सड़क बनाने के नाम पर करोड़ों रुपया सरकारी तिजोरी से नेता, अफसर और ठेकेदार के बक्सों में चुुपचाप चला जाता है। राज्य सरकारों के अनेक विभागों में वित्तीय वर्ष समाप्ति के अंतिम तीन-चार महीनों-दिसंबर से मार्च के दौरान धड़ाधड़ बिल पास होते हैं, जो सड़क ६ महीने में बनती है, वह १६ दिन में बनी हुई दिखा दी जाती है। सड़कों का निर्माण और बिगाड़ बार-बार होता है। मिट्टी-डामर लगा और सर्दी की एक बारिश में बह गया, रास्ता जैसा था, वैसा ही रह गया। स्वूâल के लिए टाट-पट्टी आई और फट गई। पशुओं के लिए दवाई आई और कुछ हफ्तों में चट हो गई। बाढ़ रोकने के लिए कच्चा बांध बनाने में लाखों की रेत कब बह गई, उसका सही हिसाब कौन बता सकता है? आदिवासी इलाकों में मुफ्त दवाई, अनाज या पशु बांटने का रजिस्टर पक्का है, लेकिन आदिवासियों तक कुछ न पहुंचने का दुखड़ा भुवनेश्वर, लखनऊ, दिल्ली तक वैâसे पहुंचेगा? दिखने को हर जिले के पास विकास के लिए कुछ लाख की रकम होती है, लेकिन पूरे प्रदेश का बजट करोड़ों में होता है। इसलिए राजस्थान, मध्यप्रदेश, मिरोजम और दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद नई सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि दूरदराज के गांवों तक भ्रष्ट दलदल की सफाई हो और न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध कराने के वादे तथा कार्यक्रम कार्यान्वित हों।
भारत में सामान्यत: एक तर्वâ दिया जाता है कि निचले स्तर पर कर्मचारियों के वेतन और साधन सीमित होने के कारण भ्रष्टाचार उनकी मजबूरी बन जाता है। यह तर्वâ बेमानी है। अधिक वेतन और सुख-सुविधा वाले लोग भी कम भ्रष्ट नहीं होते। अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों में उच्च शिक्षा और समुचित वेतन एवं सुविधाएं-प्राप्त अधिकारी भी रिश्वत लेने से नहीं चूकते। भारत में बहुत कम लोग यह बात जानते होंगे कि अमेरिका में भी वाशिंगटन से अधिक भ्रष्टाचार राज्यों में है। उदाहरण के लिए - वेंâटुकी राज्य में एक व्यापारिक कम्पनी से, छोटे से पक्षपातपूर्ण निर्णय के लिए, राज्य सरकार के कुछ नेताओं ने एक लाख डॉलर मांगे। एक ‘लॉबिस्ट’ के माध्यम से यह मांग की गई। कम्पनी के मालिकों ने एफबीआई से शिकायत कर दी। रिश्वतखोरी के आरोप में ग्यारह लोग दंडित हुए। इसी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी एक निजी कम्पनी को नियमों में ढील देकर विशेष सुविधा दी गई। जांच होने पर पता चला कि नेता दस हजार डॉलर डकार गए। भारत में सड़क पर पेâरी लगाने वालों से पैसा वसूलने के मामले आते हैं और कोई कार्रवाई नहीं होती। अमेरिका में सड़कों के किनारे अस्थायी दुकान लगाने वालों से नियमित रूप से रिश्वत लेने वाले नेता और अधिकारी दंडित हुए हैं। नार्थ केरोलिना राज्य में एक गर्वनर और उसके सहयोगियों ने २५ हजार डॉलर का चुनावी चंदा देने वाले एक व्यक्ति को प्रभावशाली ट्रांसपोर्ट बोर्ड का निदेशक मनोनित करने का वादा किया। चुनाव जीतने के बाद वादा पूरा नहीं किया गया। रिश्वत देने वाले ने पोल खोल दी और हंगामा हो गया। ऐसे पचासों मामले अमेरिकी जांच एजेंसियों के सामने आते हैं। ब्रिटेन में सांसदों द्वारा संसद में सवाल पूछने के लिए घूस देने के तथ्य प्रमाणित करने के लिए पत्रकारों ने स्वयं पैसा देकर खबर बना दी, तो सांसद ही नहीं, पूरी संसद भड़क गई। चीन के कम्युनिस्ट शासन में किसी को भूखे नहीं मरने दिया जाता है, लेकिन प्रशासन में भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि प्रतिवर्ष हजारों मामले सामने आते हैं और भ्रष्टाचार-उन्मूलन के लिए अलग से एक मंत्रालय बना हुआ है।
मतलब यह कि भ्रष्टाचार का एकमात्र कारण नेता या अधिकारी की आर्थिक मजबूरियां नहीं होती। यह केवल मानसिकता का परिणाम है। प्रशासन छोटे-छोटे काम में वर्षों लगा देता है। रिश्वत के बिना सड़क पर रिक्शा चलाना, नदी से रेत निकालना या छोटा कारखाना लगाना भी संभव नहीं होता। हमारी समस्या यह है कि हम दिल्ली, वाशिंगटन, पेरिस, लंदन से आगे कुछ नहीं देखते। लगता है, सारा भ्रष्टाचार, दुराचार, सुख-दुख राजधानी में ही है। बड़े नेताओं पर लगे सच्चे-झूठे हर आरोप पर भरोसा हो जाता है। कल्पना नहीं होती कि दूरदराज के एक जिले में बैठा एक नेता या अफसर प्रतिदिन एक-दो लाख रुपए कमाकर घर पहुंच रहा है।
राजस्थान में कांग्रेस सरकार पुन: आ गई है, लेकिन कभी इसी पार्टी के एक पूर्व-मुख्यमंत्री से भेंट करने के लिए दरवाजे पर चढ़ावा देना होता था। एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री के रसोईघर के घड़ों और डिब्बों में लाखों रुपए भरे पड़े थे। मध्य प्रदेश में ऐसे मुख्यमंत्री भी रहे, जिनकी मृत्यु के बाद परिजनों को टेलीफोन का बिल भरना मुश्किल हो गया और ऐसे मुख्यमंत्री भी रहे, जो कच्ची र्इंट की हवेली के साथ राजनीति में आए और कुछ वर्षों में उनके महल खड़े हो गए। उड़ीसा में मुख्यमंत्री से भेंट के लिए रुपए ही नहीं, बहुत कुछ समर्पण के आरोप प्रकाश में आए। पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चे ने कुछ अच्छे कार्यक्रम गांवों तक पहुंचाए, लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ों को नष्ट करने में उसे भी सफलता नहीं मिली। महाराष्ट्र में ‘रामराज्य’ की बात करने वाले सत्ता में आ गए, लेकिन हर योजना की स्वीकृति पर चंदे का रेट और ऊंचा हो गया। महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक ने उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में तेजी से प्रगति की, लेकिन वहां के नेताओं और अफसरों ने कमीशन में करोड़ों रुपए झाड़ लिए। शराब पर प्रतिबंध लगाने और हटाने में करोड़ों रुपया ड्रम में भर गया।
वास्तव में निचले स्तर पर जागरुकता तथा नियंत्रण लाए बिना भ्रष्टाचार के दलदल को नहीं सुखाया जा सकता। प्रदेशों में भ्रष्टाचार की जांच-पड़ताल के लिए गठित होने वाली मशीनरी में भी ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनकी अपनी पृष्ठभूमि संदिग्ध रही है। जांच एजेंसियों अथवा प्राधिकरणों में ईमानदार और निष्पक्ष व्यक्ति रहने पर ही शिकायतों का निपटारा सही ढंग से हो सकता है। वैसे भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए पंचायतों तथा राजनीतिक या सामाजिक संगठनों की सक्रियता अधिक उपयोगी हो सकती है। मध्य प्रदेश, केरल या पश्चिम बंगाल पंचायतों के अधिकार बढ़ने से सर्वाधिक लाभ यही हुआ कि अफसरों को मनमानी और भ्रष्टाचार के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। कुछ सर्वोत्तर राज्य में भी अब लोग नेताओं से हिसाब मांगने लगे हैं। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी का पंचायत-राज का सपना साकार होने की आवश्यकता अब अधिक महसूस होगी। टेलीविजन-रेडियो तथा संचार-साधनों ने राजधानियों से गांव की दूरी कम कर दी है। यदि नेता अपने इलाके की ओर ध्यान न देकर दिल्ली-मुंबई की रंगीनियों में खोया रहेगा, तो सुदूर जंगल में बैठे लोग अपने आसपास जमा कचड़े को साफ करने के लिए झाड़ू ही नहीं, हथियार भी उठाने लगते हैं। बस्तर, झारखंड या त्रिपुरा के जंगलों में उग्रवादी गुटों को ग्रामीणों का समर्थन इसी कारण मिल रहा है। अरुणाचल प्रदेश में सैकड़ों टन सेब सड़ जाता है, लेकिन प्रशासन और सेना के अधिकारी चार गुना अधिक दाम देकर ठेकेदारों से सेब खरीद सकते हैं।
सुरक्षा और गोपनीयता कानूनों की वजह से पुलिस और सेना के साधारण जवानों के लिए दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं तथा दवाइयों की खरीद में करोड़ों रुपयों का भ्रष्टाचार कभी सामने नहीं आ पाता। बीस लाख लोगों के लिए दूध, दही, फल, अनाज, वर्दी, बेल्ट, बूट पॉलिश जैसी छोटी-छोटी वस्तुओं की खरीद पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। एक तरफ उन अनुशासित सिपाहियों में असंतोष पनपता है, दूसरी तरफ अधिकारी और नेता हिस्सा बांट लेते हैं। वास्तव में विमान, तोप या अन्य बड़े हथियारों की खरीद पर सबकी नजर रहती है और उनसे भी अधिक खर्चों की हेरा-पेâरी पर संसद तक ध्यान नहीं दे पाती। आवश्यकता इस बात की है कि पीने के पानी, स्वूâल के ब्लैक बोर्ड, टाट-पट्टी, अस्पताल की दवाई और मरहम-पट्टी, पशुपालन इत्यादि पर होने वाले खर्चों पर भी विशेष ध्यान दिया जाए। संबंधित सतर्वâता विभागों और ऑडिट ब्यूरो की औपचारिकता खानापूर्ति पर्याप्त नहीं है।
देश में आज भी हजारों ऐसे गांव हैं जहां पोस्ट ऑफिस, बैंक, स्वूâल, अस्पताल की सुविधाएं देने के दावे सरकारें कर रही हैं, लेकिन कर्मचारी महीने में तीन चार बार केवल ‘उपस्थिति’ दर्ज कराने पहुंचते हैं। वहां होने वाली गड़बड़ियां किसी के सामने नहीं आ पाती, क्योंकि जांच पड़ताल करने वाले अधिकारी भी कागजी दौरा दिखाकर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे लेते हैं। यदि कोई पहुंचता है, तो उसे दो वक्त की सूखी रोटी तथा रात को लालटेन की रोशनी के लिए वहां तैनात कर्मचारी की कृपा पर निर्भर रहना होता है। ऐसी स्थिति में वह सही रिपोर्ट वैâसे देगा?
सतर्वâता-विभागों और ऑडिट की रिपोर्ट्स पर बड़े नेता या अफसर वुंâडली मारकर बैठ जाते हैं। वर्षों बाद यदि फाइलें खुलती हैं तो संबंधित भ्रष्ट, व्यक्ति नौकरी से सेवानिवृत्त या जीवन से मुक्ति पा चुका होता है, कार्रवाई किस पर होगी? इसलिए निचले स्तर के भ्रष्ट दलदल की सफाई के लिए जन-प्रतिनिधियों, जांच एजेंसियों और दंड देने वाली अदालतों तो त्वरित निर्णय की व्यवस्था करनी होगी, अन्यथा यह दलदल प्रजातंत्र की पूरी हरियाली ही निगल लेगा।