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subah8aprail2017

खुद को प्रगतिशील और लोकतांत्रिक बताने वाले अनेक लेखक और वरिष्ठ पत्रकार आजकल कुंठित जीवन जी रहे है। यह कुंठा सोशल मीडिया पर साफ नजर आती है। ऐसे दर्जनों बुद्धिजीवियों के स्टेटस पर जाकर देखो तो पता चलता है कि वे दिनभर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के खिलाफ भड़ास निकालते नजर आते हैं। अगर उनकी पोस्ट पर कोई नकारात्मक टिप्पणी लिख दे, तो तत्काल उसे ब्लॉक या अनफ्रेंड कर देते हैं। आप तो बुद्धिजीवी हैं, लोकतंत्र के हिमायती हैं, तो आप भी थोड़े लोकतांत्रिक क्यों नहीं हो जाते। आपकी पोस्ट के खिलाफ टिप्पणी करने वालों के प्रति उदार रुख क्यों नहीं रखते? यदि आप उनकी बात से सहमत नहीं है, तो विचारों और तर्कों से उसका जवाब दीजिए।

एक जाने-माने पत्रकार अपने वामपंथी तेवरों के कारण बहुत चर्चित थे। कुछ साल पहले उन्होंने जुगाड़ बैठाई और एक गांधीवादी संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर जा बैठे। पद पाते ही उनका वामपंथ पृष्ठभूमि में चला गया और वे गांधीवादी संस्थाओं की महत्ता की बातें बताते रहे। बीच-बीच में अपने फोटो भी शेयर करते रहे, जो उन्होंने गांधीवादी संस्थान में रहते हुए नेताओं के साथ खिंचवाए थे। संस्थान से हटने के बाद उनका गांधीवाद इतिहास की चीज बन गया और वे वापस सोशल मीडिया पर वामपंथ का झंडा लेकर चलने लगे। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ कर रहे है, उसे सोशल मीडिया पर कोई देख और समझ नहीं रहा है, जबकि वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है।

नामी संपादक रहे एक बुद्धिजीवी को मीडिया के किसी भी क्षेत्र में अगर भारत सरकार की नाकामी अथवा विफलता नजर आती है, तो वे खुशी के मारे ऐसी पोस्ट कर डालते है, मानो वो भारत के नहीं मंगल ग्रह के नागरिक हो। प्रधानमंत्री ने कश्मीर में देश की सबसे बड़ी सुरंग का उद्घाटन किया, तो कहने लगे कि इसका निर्माण तो पिछली सरकार के नेतृत्व में शुरू हुआ था। ऐसे अनेक काम है, जो पिछली सरकार ने शुरू किए थे, लेकिन उनका समापन अभी हुआ है। ऐसे कामों के लिए पिछली सरकार को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। निश्चित ही इतनी उदारता की अपेक्षा वर्तमान शासकों से की जा सकती है, लेकिन वे संपादक जी बताएं कि जब वे संपादक बने थे, तब उनका अखबार कितना बिकता था और जब वे हटे, तब कितना बिकता था? भारत को दुनिया का सबसे कमजोर लोकतंत्र बताने की कोशिश करने वाले संपादक जी ने अगर अपने कार्यकाल में अपने अखबार पर ध्यान दिया होता, तो शायद वह अखबार आज भी शीर्ष पर होता।

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ऐसे ही एक और बुद्धिजीवी हैं, जो खुद तो नहीं लिखते, लेकिन विश्व राजनीति में भारत की भद की सूचना कहीं भी छपी हो, तो उसका लिंक सुबह-शाम सोशल मीडिया पर पोस्ट करते है। भारत के बारे में विश्व मीडिया में हमेशा तो सकारात्मक खबरें छपेगी नहीं। खबरें कैसे छपती है और किस तरह मैनेज होती है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में नकारात्मक खबरों के लिंक शेयर करके आप क्या कहना चाहते हैं? आप बुद्धिजीवी है, तो बड़ी टिप्पणी लिख दीजिए, कारण बता दीजिए कि भारत की यह स्थिति क्यों हो रही है और उसके क्या उपाय है? पर यह सब करने के लिए आपको मेहनत करनी पड़ेगी, जो आप करना नहीं चाहते।

वर्तमान में सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले बुद्धिजीवी भी बंटे हुए लगते है। एक वर्ग भक्त या अंधभक्त है और दूसरा विरोधी या अंधविरोधी। ये लोग अपनी विचारधारा से जुड़े किसी भी चित्र, कार्टून, वीडियो लिंक आदि को शेयर करने में इतनी तेजी से जुट जाते है कि लगता है कि अब सोशल मीडिया से जुड़े एक बड़े वर्ग ने संयमित ढंग से सोचना और बोलना बंद कर दिया है। हो सकता है कि आप किसी विचारधारा के समर्थक हो, लेकिन हर समय आप उस विचारधारा के पक्ष में ही तर्क और कुतर्क ढूंढते रहते है या संयमित होकर सत्य की खोज की कोशिश भी करते है? सोशल मीडिया पर आकर दूसरों को उपदेश देना आसान है, अपनी भड़ास निकालने के लिए भी यहां बहुत से तरीके आपको मिल जाएंगे, लेकिन क्या आपके पास किसी समस्या के समाधान की दिशा में कोई विचार है क्या?

8 April 2017

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