7 अगस्त, जन्मदिन के अवसर पर...
आजकल अखबारों का सम्पादकीय पन्ना ‘वेस्ट मटेरियल' बनता जा रहा है, जिस पन्ने पर लोग सबसे ज्यादा भरोसा करते थे और जिसे पढ़ने के लिए न केवल आतुर रहते थे, बल्कि जिसके एक-एक शब्द को पाठ्यपुस्तक की तरह पढ़ा जाता था, वह अब न्यूजपेपर नाम के प्रॉडक्ट का लगभग अवांछित हिस्सा बन गया है।
सम्पादकीय पेज पर से ही सम्पादकीय का स्थान लगातार कम होता जा रहा है, किसी भी विषय पर विषद चर्चा के बजाय उस विषय को छू भर लिया जाता है. बेशक, सम्पादकीय पेज पर अब लेखकों के फोटो भी छपने लगे हैं, लेकिन किन के? आज ़ज्यादातर अखबार सम्पादकीय पेज सजाने के लिए सेलेब्रिटी का उपयोग कर रहे हैंं और उनके ही लेख छापते हैं, जो जाने-पहचाने चेहरे हैं। विशेषज्ञों की ज़रूरत अब ख़त्म, सेलेब्रिटी जो लिखे, वही परम सत्य। वरिष्ठ पत्रकार राजेंन्द्र माथुर के दौर में यह शायद मुमकिन नहीं था। अब सम्पादकीय पेज के लेखक उस कद के नहीं बचे हैं क्योंकि अब संपादक उस कद के नहीं हैं।
अखबार को प्रोडक्ट बनाने की कोशिशें तो राजेंद्र माथुर साहब के जीते जी ही शुरू हो गयी थी, लेकिन तब माथुर साहब के रहते वे उतने घटिया प्रोडक्ट बनाने में कामयाब नहीं हो पाए, क्योंकि माथुर साहब का कहना था कि जो भी काम करो, बेहतरीन करो। अगर संपादक के नाम चिठ्ठी भी छापो तो ऐसी छापो कि लोग उसे पढ़कर याद रखें। वे सम्पादकीय पेज को अखबार का झंडाबरदार पेज मानते थे और कोशिश करते कि वहां एक शब्द भी अनुपयोगी और निरर्थक न हो। वे सम्पादकीय पेज खुद एडिट करते थे और आम तौर पर सम्पादकीय भी खुद लिखते। जब उन्हें फुरसत मिलती तब किसी और को सम्पादकीय लिखने का मौका देते और फिर पूरा वक्त देकर उस सम्पादकीय टिप्पणी को मांजते-चमकाते। मक़सद होता था, दूसरे लेखकों को मौका और प्रशिक्षण देने का। आमतौर पर सम्पादकीय पेज छपने वाले पत्रों का भी चयन और संपादन वे खुद करते थे और यही कारण था कि उन दिनों संपादक के नाम पत्र कॉलम बेहद लोकप्रिय हुआ करता था और लोग अखबार आते ही सबसे पहले यह कॉलम पढ़ना पसंद करते थे।
माथुर साहब का मानना था कि बेशक पत्रकारिता कोई सेवा नहीं, पेशा है, लेकिन किसी डॉक्टर या शिक्षक के पेशे की तरह। वे अपने अखबार को हमेशा सत्यनिष्ठ, स्पष्ट और न्याय का पक्षधर देखना चाहते थे और इसी मकसद के लिए कार्य भी करते थे। अगर वे आज होते तो देश में अखबार नाम के प्रोडक्ट ज़रा बेहतर किस्म के होते। इन प्रोडक्ट में वे लोग शायद नहीं होते, जिनका काम ही 'सेटिंग' करने का होता है। राजेंद्र माथुर होते तो आज भी अखबारों के मालिक रूपया कमाते, लेकिन इस तरह नहीं, बल्कि अखबार के कंटेंट और उसके बूते बिकने वाले अखबारों से, विज्ञापनों से। वे होते तो संपादक का कद शायद ज्यादा बड़ा होता। अखबार के सरोकार ज्यादा जनोन्मुख होते, जिससे पत्रकारिता का चेहरा भी ज्यादा साफ़ होता, सम्माननीय होता।
मैंने कई बार लिखा है कि अखबारों के मालिक चाहे व्यक्ति हो, फर्म हो, साझेदारी संस्थान हो, कम्पनी हो - कोई भी हो, असली मालिक तो उसके पाठक ही होते हैं। उसी तरह टीवी चैनल्स के असली मालिक होते हैं दर्शक। सारे ही पत्रकार अपने मालिकों के लिए काम करते हैं यानी पाठकों और दर्शकों के लिए, लेकिन आज लगता है कि मीडिया के मालिक बदल गए हैं, उनका फोकस शिफ्ट हो गया है। अब मालिक पाठक या दर्शक नहीं, विज्ञापन देनवाले हो गए हैं। यही बदलाव मीडिया में हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों के लिए जवाबदार है। मीडिया का जन-सरोकारों से दूर हो जाने का कारण भी यही है। अब खबरें विज्ञापनों की तरह सजाई जाती हैं। कोई भी अखबार पढ़ लीजिए या कोई भी चैनल देख लीजिए। अब अखबार ऐसा बनाया जाने लगा है कि वह विज्ञापनदाताओं को पसंद आए। अखबार का 'सुन्दर' होना अनिवार्य शर्त होने लगी है। अगर भूकंप, लूट, हत्या, बलात्कार के भी खबर हो तो भी अखबार में उसे सुन्दर तरीके से पेश किया जाना ज़रूरी हो गया है। इसी के साथ आजकल खबरों में सनसनी का तत्व अनिवार्य रूप से देना ज़रूरी हो गया है। यानी यही हाल अगर पिछली सदी के तीस और चालीस के दशक में होता तो गाँधी जी के नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आन्दोलन की खबरें नहीं होतीं, बापू और मीरा बहन के किस्से जगह पाते। हो सकता है कि सत्य के साथ गांधीजी के प्रयोगों को लेकर कोई चैनल 'स्टिंग ऑपरेशन' कर देता।
मीडिया में ये बदलाव पाठकों और दर्शकों को ध्यान में रखकर नहीं, विज्ञापनदाताओं के लिए 'फील गुड' का अनुभव देने के लिए किए जा रहे हैं। विज्ञापन लाने वाले मैनेजर के बारे में मालिक को लगता है कि अखबार की आय उसी के कारण हो रही है, अगर ऐसा होता तो अखबारों में केवल विज्ञापन छापकर ही काम चला लिया जाता। लोग खबरें पढ़ने के लिए अखबार खरीदते हैं और उन्हें विज्ञापन मुफ्त में 'पढ़वाए' जाते हैं, लेकिन आजकल जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे ये लगता है मानो अखबार विज्ञापन पढ़ने के लिए छापे और खरीदे जाते हैं और खबरों और सम्पादकीय लोगों पर थोपे जा रहे हैं। राजेन्द्र माथुर ने अखबार में सम्पादक की गरिमा को स्थापित करने में और उसे अक्षुण्ण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दुर्भाग्य से आज सम्पादक नाम की संस्था गौण हो गई है और ब्रांड हेड प्रमुख बन बैठा है। जो विज्ञापन मैनेजर कभी संपादक के केबिन के बाहर इंतज़ार करता रहता था, अब संपादक उससे मिलने के लिए वक्त मांगता नज़र आता है। राजेन्द्र माथुर अपने सम्पादन काल में न तो मालिक के केबिन में जाते थे और न ही ब्रांड मैनेजर के केबिन में। जिन्हें मिलना होता वे खुद उनसे मिलने आ जाते। राजेन्द्र माथुर के लिए वे खबरें महत्वपूर्ण रही, जिनका सरोकार आम आदमी से होता रहता है। आजकल की तरह नहीं। आज सानिया मिर्ज़ा की शादी की खबर नक्सलवादियों द्वारा सुरक्षाबलों पर हमले से बड़ी खबर है और मायावती का हेयर स्टाइल बदलना दलित महिला के खिलाफ हो रहे जुर्म से बड़ी खबर।
राजेन्द्र माथुर ने जिस तरह की पत्रकारिता की थी, उसे इमर्जेन्सी में लोगों ने देखा। आज़ादी के बाद के उन काले दिनों में राजेन्द्र माथुर ने भारतीय लोकतंत्र के दाग-धब्बों से अपने पाठकों को लगातार परिचित कराया और फिर चुनाव की घोषणा होने के बाद पूरी शिद्दत से इंदिरा गाँधी और उनकी पार्टी को हराने का अभियान चलाया। इमर्जेन्सी हटने के बाद भी वे चुप नहीं रहे कि अब तो चुनाव की घोषणा हो गयी है, अब सब कुछ सामान्य है। उन्होंने इस बात के लिए लोगों को प्रेरित किया कि वे ऐसी व्यवस्था करने के लिए आगे आयें कि आगे फिर कभी इमर्जेन्सी का भूत बाहर ना आ सके।
राजेन्द्र माथुर ने कभी भी अपने अखबार के 'टीजी' (टार्गेट आडियेंस) को संकीर्ण भाव से नहीं देखा। उनके मत में अखबार के पाठक समझदार और जिज्ञासु, बेबाक और बेखौफ, विचारवान और निर्णायक होते हैं। यह सोचना कि पाठकों की दिलचस्पी केवल सनसनी, अपने मतलब की खबरों, मनोरंजन की फूहड़ सूचनाओं और सेल के विज्ञापनों में होती है, अपने पाठकों का अपमान तो है ही, अपना बौद्धिक दीवालियापन भी है। नईदुनिया उन दिनों भले ही क्षेत्रीय अखबार रहा हो, उसके सरोकार व्यापक थे और खबरों और विचारों का प्रवाह वैश्विक था। झाबुआ-बड़वानी के आदिवासियों की जुबान बनते वक्त उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि अनपढ़ आदिवासी हमारे पाठक नहीं हैं, इसलिए हमारे उनसे कोई सरोकार नहीं हैं। आदिवासी इलाकों की हर उस खबर ने नईदुनिया में जगह पाई, जिसकी उसे दरकार थी। विचारों के पन्ने पर भी उन्होंने जो कुछ भी लिखा और छापा, उसका सरोकार पूरे समाज और शासन से था। १९६९ में जब आदमी ने चाँद पर कदम रखा, तब भी नईदुनिया का चार पन्नों का विशेष रंगीन परिशिष्ट प्रकाशित हुआ। वे नईदुनिया को हिन्दी का नहीं, देश का सर्वश्रेष्ठ अखबार बनाना चाहते थे। वे हमेशा ही श्रेष्ठता के पक्षधर रहे। जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने तभी हिन्दी अखबारों का व्यापक फैलाव शुरू हुआ। उन्होंने हिन्दी की अपार संभावनाओें को पहले ही समझ लिया था और इसलिए नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक बनने के बाद नवभारत टाइम्स के जयपुर, लखनऊ और पटना संस्करणों की शुरूआत कर दी थी। वे कहते थे कि हिन्दी का साम्राज्य काफी बड़ा है और यह और भी ज्यादा व्यापक हो सकता है। आज तमाम हिन्दी अखबारों का बोलबाला है, इसकी कल्पना उन्होंने पचास साल पहले कर ली थी। वे एक परिपक्व सम्पादक थे और अपने पाठकों की परिपक्वता को ब़ढ़ाने के लिए प्रयत्नरत रहते थे।
भारतीय पत्रकारिता में अनूठी छाप छोड़ने वाले श्री राजेन्द्र माथुर ने मध्यप्रदेश के धार जिले के छोटे से कस्बे बदनावर से अपना सफर शुरू किया था। अंग्रेजी के प्रोपेâसर और हिन्दी के सम्पादक के रूप में उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की दिशा को मोड़ा। भारतीय पत्रकारिता को उन्होंने एक मुहावरा दिया और अपने लेखन की रूपक शैली में नए-नए मुहावरे गढ़ते चले गए। उन्होंने अपनी जिन्दगी में दो अखबारों के लिए काम किया। नईदुनिया और नवभारत टाइम्स। इन दोनों ही अखबारों में उन्होंने ऐसे पत्रकारों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने सम्पूर्ण हिन्दी जगत की पत्रकारिता का नेतृत्व किया और अब भी कर रहे हैं। दूसरे प्रेस आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने पूरे प्रेस जगत की ही दिशा बदल दी। उन्होंने युवा पत्रकारों को लेखन, सम्पादन और रिपोर्टिंग की नई-नई शैलियों से परिचित कराया। साथ ही प्रतिभावान पत्रकारों को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई।
श्री माथुर का सम्पूर्ण लेखन त्वरित रहा है। वे खुद एक जीते-जागते संदर्भ ग्रंथ की तरह थे। हजारों लोगों के नाम और तारीखें उनकी स्मृति में अंकित थी। दुनियाभर की सामयिक घटनाएं मानो किसी डाक्यूमेन्ट्री फिल्म की तरह उनके मस्तिष्क में वैâद रहती थीं। आमतौर पर वे कभी संदर्भ-सामग्री का सहारा नहीं लेते थे और न ही किसी सम्पादकीय या लेख को लिखने के पहले कभी रफ ड्राफ्ट तैयार करते। अगर उनके सामने २० लोग बैठकर भी बातचीत कर रहे होते तो भी वे बिना डिस्टर्ब हुए अपना काम करते रहते थे।
उन्होंने अपनी भाषा में दूसरी भाषाओं और बोलियों के शब्द आने में गुरेज नहीं किया। जो अधिकार उनका हिन्दी भाषा पर रहा, अंग्रेजी पर भी वही अधिकार था। द टाइम्स ऑफ इंडिया में उनके लेख नियमित प्रकाशित होते थे। मैं तब नवभारत टाइम्स में कार्यरत था। टाइम्स के कई पत्रकार और कई लोग तो उन्हें अंग्रेजी का ही पत्रकार समझते थे। यह वह दौर था, जब हिन्दी पत्रकारिता को वह सम्मान हासिल नहीं था, जो अंग्रेजी की पत्रकारिता को था। हिन्दी के सम्पादकों का वेतनमान भी अंग्रेजी के सम्पादकों की तुलना में कम होता था। राजेन्द्र माथुर ने अंग्रेजी पत्रकारिता के उस साम्राज्य को ढहाने में बड़ी भूमिका निभाई।
राजेन्द्र माथुर ने उस दौर में अपनी कलम से वैसे ही चमत्कार किए, जैसे मकबूल फिदा हुसैन ने अपने ब्रश से, सचिन तेंदुलकर ने अपने बल्ले या उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने अपनी शहनाई से। श्री माथुर की शैली की एक और खासियत थी, वे शब्दों का नपा-तुला प्रयोग करते थे। वे कहते थे कि अगर ‘जरूरत’ से काम चल जाता है तो ‘आवश्यकता’ शब्द क्यों लिखें। आखिर इसमें डेढ़ अक्षर की बचत भी तो होती है। वे रिपोर्टरों और डेस्क के सब एडिटर से कहते थे कि रिपोर्ट या लेख इस तरह से होना चाहिए कि पूरी बात भी आ जाए और शब्दों की फिजूलखर्ची भी न हो। वे कहते थे कि हमेशा यह मानकर लिखो, मानो आप टेलीग्राम भेज रहे हो और आपको हर शब्द के पैसे चुकाने हैं। जितनी मितव्ययता आप करोगे, उतनी ही चुस्त रिपोर्ट या लेख बनेगा। वे खुद कहते थे कि मैं सम्पादक की टेबल पर लेखों की कतरब्योंत ऐसे करता हूं, जैसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन करना है, लेकिन लोग मुझे जल्लाद समझ लेते हैं।
इमरजेंसी के दिनों में उन्होंने नईदुनिया का सम्पादन किया था, तब प्रेस सेन्सरशिप लागू थी। सेन्सर लागू होने के अगले ही दिन नईदुनिया का सम्पादकीयवाला स्थान खाली था। जब वह अखबार लोगों के हाथों में पहुंचा, तब लोग उसका अर्थ समझ चुके थे। इमरजेंसी के दौर में ही नईदुनिया में उनकी लेखमाला ‘मुद्दे’ शीर्षक से छपी, जिसमें इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ पेंâकने की खुली अपील थी। दिलचस्प बात यह है कि इमरजेंसी के दौर में भी नईदुनिया की प्रसार संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। श्री माथुर जब नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक के रूप में दिल्ली में थे, तब लोग उन्हें मध्यप्रदेश का एम्बेसेडर मानते थे। यह बात और थी कि उन्होने खुद को संकीर्ण दायरे में नहीं रखा।
राहुल बारपुते की नजर में राजेन्द्र माथुर
राहुल बारपुते ने १९५५ से १९८२ तक के नईदुनिया के बारे में लिखा है। श्री बारपुते ने लिखा है कि इन २७ वर्षो में रज्जू बाबू की प्रतिभा को बढ़ते देखना एक सुखद दौर था। श्री बारपुते ने लिखा है कि राजेन्द्र माथुर बहुत कम बार अपने कार्यालय से अनुपस्थित रहते थे। केवल तीन परिस्थितियों में वे नईदुनिया कार्यालय में नही होते थे - पहला, अगर उनका स्वास्थ्य खराब हो। दूसरा, जब वे इंदौर के बाहर हों और तीसरा, जब परिवार में कोई मांगलिक कार्य हो। श्री माथुर माणिकबाग रोड पर रहते थे और वे कभी-कभी टहलते हुए नईदुनिया के दफ्तर आ जाते थे। ऐसे मौके भी आए जब वे शाम को लालबाग में टहलने चले गए। एक बार वे अपने सहयोगी से यह कहकर घूमने निकल गए कि मैं मटरगश्ती करने जा रहा हूं। जब संपादकीय बैठक का समय हुआ और श्री माथुर बैठक में नहीं तो मैंने ऑफिस उनकी में बहुत खोज करवाई पर वो नहीं मिले। बाद में श्री माथुर के सहयोगी ने उनसे कहा कि कृपया मुझे बताकर न जाया करें, जब भी कोई पूछता है तो यह बताने में बड़ी मुश्किल होती है।इस पर श्री माथुर ने सहजता से कहा कि बता दिया करो कि मैं मटरगश्ती करने गया हूं।
एक बार श्री माथुर अपनी पत्नी मोहिनी माथुर के साथ खरीददारी करने गए। वहां एक दुकान से दूसरी दुकान भटकते रहे। श्री माथुर अपने विचारों में खोए बाजार में टहलने लगे, फिर कोई काम याद आ गया तो अपना स्वूâटर उठाकर घर पहुंच गए। वहां देखा कि घर पर ताला लगा हुआ था। उन्होंने सोचा कि श्रीमती माथुर कहीं आसपास होंगी। सो दरवाजे पर ही इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर बाद श्रीमती माथुर ऑटो रिक्शा से घर पहुंची तो उन्होंने पूछा कि कहां गई थीं? श्रीमती माथुर ने जवाब दिया कि आप तो मुझे छोड़कर आ गए, मुझे ऑटो से आना पड़ा।
श्री माथुर अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति बेहद सजग थे और अपने बच्चों को छोड़ने और लेने खुद ही जाते थे। जब स्वूâल की छुट्टी होती थी तो वे अपने ऑफिस से आधा घंटे गायब रहते थे और बच्चों को स्वूâल से लेकर घर छोड़ने जाते थे। एक बार की घटना है। उन्हें पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए तीन महीने बैंकॉक जाना पड़ा, तब बच्चों को स्वूâल छोड़ने की जिम्मेदारी श्रीमती माथुर ने निभाई, लेकिन स्वूâल से लाने के वक्त वे अपने प्राध्यापन कार्य में ड्यूटी पर होती थी, तब बच्चों को स्वूâल से लाने का काम राहुल बारपुते ने किया।
आलोक मेहता ने अपनी किताब ‘सपनों में बनता देश’ में राजेन्द्र माथुर के बारे में लिखा है - ‘१९८५-८६ के दौरान गुप्तचर एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सवाल किया आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से वे कभी कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिन्दूवादी संघी, तो कभी समाजवादी? क्या है उनकी पृष्ठभूमि? उस जासूस की उलझन भरी बातों से मुझे खुशी हुई। मैंने कहा माथुर साहब हर विचारधार में डुबकी लगाकर ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी भी पार्टी या विचारधारा में नहीं है। वह कभी किसी एक के साथ नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थो में राष्ट्र भक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने भी बड़े बलिदान और त्याग के पक्षधर हैं‘।
अनेक वर्षो तक राजेन्द्र माथुर के सहयोगी रहे रामबहादुर राय कहते हैं - ’जब उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन क्षेत्र में भी काम करना होगा, तो वे द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ वे अपने सपने को टूटते-बिखरते नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिन पहले मेरी उनसे बात हुई थी। मैं उनके घर गया था, मैंने उन्हें परेशान पाया। मैंने उनसे पूछा कि क्या अड़चन है? तो उन्होने कहा कि देखो अशोक जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिक) नवभारत टाइम्स पढ़ते थे, उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार वैâसे बेहतर बनाया जाए, लेकिन उनके पुत्र समीर जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते ही नहीं।
प्रसिद्ध पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने लिखा था कि भारत में एक पाकिस्तान और पाकिस्तान में एक भारत सदैव जमा हुआ है। यह उन्होंने दोनों देशों की मानसिक-वैचारिक स्थिति के संदर्भ में कहा था। इस यथार्थ को हमारे प्रबुद्ध लोग प्राय: नहीं देखना चाहते। भारत की पाकिस्तान-नीति की पूरी विफलता में यही भगोड़ापन है। भारत की पाकिस्तान समस्या तथा पाकिस्तान की भारत केंद्रित रणनीति, दोनों ही मूलत: विदेशी नहीं, आंतरिक समस्या हैं। यह न देखना एक भूल है। पाकिस्तानी सेना द्वारा जब-तब सीमा का उल्लंघन करने, भारतीय जवानों के सिर काट कर फेंक देने या उन्हें बर्बरतापूर्वक मारने की घटनाएं बार-बार होती रही हैं। यह सब वे चीनी, ईरानी या अफगानियों के साथ कभी नहीं करते। हमारे साथ करते हैं तो हमारी मानसिकता का आकलन करके ही। वे हमें जानते हैं। दुर्भाग्य से हमने इस सभ्यता-संघर्ष को पहचाना नहीं, इसीलिए उसकी तैयारी भी नहीं की। लगभग सौ वर्षों से हमारी स्थिति यथावत है। १९४७ से पहले मुस्लिमों को आपने साथ करने के लिए कांग्रेस के विविध विफल प्रयासों और उसके बाद पाकिस्तान के साथ मैत्री-पूर्ण संबंध बनाने के वैसे ही प्रयासों में एक दु:खद समानता है। समस्या की सही पहचान उसके निदान पर गंभीर विमर्श, तदनुरूप अपनी नीति बनाना, यह न तब था, न अब है। १कांग्रेस नेतृत्व मुस्लिम प्रश्न पर सदैव तात्कालिकता का शिकार रहा। उसके ऊपरी दो-एक नेता अपनी प्रवृत्ति से किसी उपस्थित मसले का कोई फौरी समाधान पाने का जतन करते थे। एक ही समस्या नए-नए रूप में उपस्थिति होती रहती थी। तब भी उस पर विस्तृत विमर्श नहीं किया गया। उससे किसी तरह तात्कालिक छुटकारा पाने तथा मूल समस्या से नजर बचाने की प्रवृत्ति रही। अधिकांश कांग्रेस नेता उसी प्रवृत्ति के थे। १९१६ के लखनऊ पैक्ट से लेकर १९९९ की लाहौर बस यात्रा, कारगिल और उसके बाद से भी वैसे ही कई कारनामों तथा वक्तव्यों- घोषणाओं तक कोई समाधान पाने या 'संबंधों में सुधार' कर लेने का भोलापन कभी नहीं बदला। इसीलिए जो दृश्य १९४७ से पहले था, वही एक भयंकर विभाजन के बाद भी रूप बदल कर अविराम चल रहा है। चाहे वह भारत के विरुद्ध युद्धरत पाकिस्तान को भारत से ही धन खजाने का हिस्सा़ दिलाने के लिए गांधीजी का विचित्र अनशन हो, चाहे कश्मीर में पाकिस्तानी हमले को पीछे धकेलती भारतीय सेना को नेहरू द्वारा रोक देना, पुन: १९६५ के हमलावर पाकिस्तान को भारत द्वारा विजित भूमि वापस कर देना या फिर उसके एक नए हमले और हार के बाद १९७२ में एक लाख बंदी सैनिकों समेत जीती जमीन पुन: वापस कर देना अथवा और आगे राजीव-बेऩजीर, वाजपेयी-नवाज शरीफ आदि समझौते, सचमुच सद्भावपूर्ण संबंध पाने में इन सबसे मिली विफलता में एक अद्भुत, किंतु करुण समानता है। इस या उस 'वार्ता' से मिले कोरे शब्दों से संतुष्ट हो जाने के रोग से भारत सदैव ग्रस्त रहा। यह हमारी सैनिक नहीं, मानसिक दुर्बलता है, क्योंकि समस्या के सभी पहलुओं पर हम विचार करना ही नहीं चाहते। इस अर्थ में पाकिस्तान एक देश नहीं, बल्कि एक मानसिकता है, जो भारत पर विगत सौ वर्ष से अनवरत एक-सा प्रहार कर रही है। पूरी स्थिति पर खुले सोच-विचार के बदले भारत अपनी नई पीढ़ियों से भारत-पाकिस्तान या कांग्रेस-मुस्लिम लीग प्रसंग की सभी बातों, इतिहास के बड़े-बड़े तथ्यों तक को छिपाता है।
राजेन्द्र माथुर भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियाँ काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे। वे सभ्यता को अक्षुण्ण रखने के लिए जंगली जिंदादिली को जरूरी मानते थे। वे आदर्श महापुरुषों की पूजा करवाने के बजाय उनके गुणों और विचारों को अपनाने के पक्षधर थे।
पत्रकार राजेन्द्र माथुर के लेखन की समय सीमा तय नहीं हो सकती। इतिहास की परतें निकालने के साथ २१वीं सदी की रेखाओं को असाधारण ढंग से कागज पर उतार देने की क्षमता भारत के किसी हिन्दी संपादक में देखने को नहीं मिल सकती। इसीलिए १९६३ से १९६९ के बीच राजेन्द्र माथुर द्वारा 'नईदुनिया' में लिखे गए लेख आज भी सामयिक और सार्थक लगते हैं।
अगस्त १९६३ में उन्होंने लिखा था- 'हमारे राष्ट्रीय जीवन में दो बुराइयाँ घर कर गई हैं, जिन्होंने हमें सदियों से एक जाहिल देश बना रखा है। पहली तो अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्पहीनता को जायज ठहराने की बुराई, दूसरी पाखंड की बीमारी, वचन और कर्म के बीच गहरी दरार की बुराई।'
लगभग ५० साल बाद भी भारत उन बुराइयों से निजात नहीं पा सका है और पत्रकारिता में माथुर साहब को पे्ररक मानने वाले पत्रकारों या सामान्य पाठकों का कर्तव्य है कि वे उन बुराइयों के विरुद्ध अभियान जारी रखें। माथुर साहब की दृढ़ मान्यता थी कि केवल अनेकता के गौरव का शंख बजाने से काम नहीं चल सकता। देश को एक बनाने के लिए ज्यादा कष्ट उठाने पड़ेंगे। एकता का मतलब है देश में धर्म-निरपेक्ष, धन-निरपेक्ष, अवसर की समानता यानी आर्थिक और सामाजिक एकता।
माथुर साहब के लेखन में गांधी, नेहरू, माक्र्स, लोहिया के विचारों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। आप उन्हें किसी धारा से नहीं जोड़ सकते। वे भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियाँ काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे। वे सभ्यता को अक्षुण्ण रखने के लिए जंगली जिंदादिली को जरूरी मानते थे। वे आदर्श महापुरुषों की पूजा करवाने के बजाय उनके गुणों और विचारों को अपनाने के पक्षधर थे। उनके लेखन में राष्ट्रवाद कूट-कूटकर भरा है, लेकिन भाषा, धर्म, क्षेत्र के आधार वाली कट्टरता कहीं नहीं मिलती।
उन्होंने विदेशी आक्रमण, अकाल, भूकम्प की परिस्थितियों में भी निराशा भरी टिप्पणियाँ नहीं लिखीं। ऐसे नाजुक अवसरों पर भी समाज में आत्मविश्वास पैदा करने का प्रयोग उन्होंने सदा किया। आज २००९ में हम अमेरिकी बाजार से प्रभावित आर्थिक मंदी से विचलित हैं। ऐसा लगता है कि इतनी भयंकर परिस्थितियाँ कभी नहीं थीं। जबकि माथुर साहब के १९६५ में लिखे गए लेखों-संपादकीय टिप्पणियों में आर्थिक मायूसी के उल्लेख के साथ इस बात को रेखांकित किया गया कि विकास का रथ भी चलता रहता है। १९६५ में लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। जहाँ जमशेदजी टाटा तक आर्थिक मायूसी पर चिंता व्यक्त कर रहे थे, वहाँ माथुर साहब याद दिला रहे थे-
‘बरौनी में रिफाइनरी शुरू हुई। बोकारो में १५ लाख टन इस्पात बनाने वाला कारखाना तैयार हुआ। मुंबई में परमाणु संयंत्र का उद्घाटन हुआ। ईरान में तेल की खोज के लिए समझौता हुआ।' इन विकास कार्यों के बावजूद एक अंदरूनी खोखलेपन पर उन्होंने प्रहार किए। आज भी इसी तेवर की आवश्यकता है।'
इस समय हम चीन से प्रतियोगिता करते हुए अमेरिका के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करते जा रहे हैं। १९६२ के युद्ध के कटु अनुभवों के बाद भी अगस्त १९६३ में राजेन्द्र माथुर ने अपने लेख में चेताया था- ‘यदि हमें चीन की चालों को सफल नहीं होने देना है, तो अपने समाजवादी औद्योगीकरण को तेजी से आगे बढ़ाएं ताकि प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहें, जो चीन और भारत के बीच चल रही है। दूसरे अमेरिका से हथियार लेने के बाद हम यह ध्यान रखें कि अमेरिका का राजनीतिक या आर्थिक प्रभुत्व हम पर हावी न हो जाए और बीजिंग के पंजे से बचने के लिए हम वाशिंगटन के प्यादे न बन जाएँ।'
वास्तव में माथुर साहब समाज के हर व्यक्ति की गरिमा की रक्षा के पक्षधर थे। उनके लेखन में बेहद पैनापन था, लेकिन किसी तरह का पूर्वाग्रह और दुर्भावना का अंश कभी देखने को नहीं मिला। पं. नेहरू को आदर्श मानने के साथ वे स्वयं सच्चे अर्थों में 'डेमोक्रेट' संपादक थे। अपने सहकर्मियों की राय को सुनने तथा लेखन के लिए पूरी स्वतंत्रता देने के साथ ही पाठकों के पत्रों की राय को सम्मान देना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। 'नईदुनिया' और 'नवभारत टाइम्स' में अत्यंत व्यस्त प्रधान संपादक रहकर भी वे पाठकों के अधिकांश पत्र खुद पढ़ते और संपादित करते थे।
वे कहते थे-'यदि देश कहीं दो बुनियादों पर टिका है तो वह राजनेताओं पर कम और न्यायपलिका तथा पत्रकारिता पर ज्यादा टिका है, क्योंकि जब कहीं आशा नहीं रहती तो निराश व्यक्ति या तो अदालत के दरवाजे खटखटाता है और उम्मीद करता है कि अमुक प्रकरण में उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। फिर वह अखबार के दफ्तर में जाता है, जहाँ सबको लगता है कि जहाँगीर के जमाने की घंटी लगी है जिसको यदि बजाएँगे तो एकदम संपादक नामक जहाँगीर आएँगे और न्याय करके ही उसे वापस लौटाएँगे।'
इस महती अपेक्षा को पूरी करने के लिए माथुरजी जीवनभर जिम्मेदार पत्रकारिता पर बल देते रहे। यही कारण है कि उनके लेखन में कभी जहर की बूँद नहीं दिखाई दी। वे ऋषि की तरह समाज और राजनीति का आकलन करते रहे।
राजेन्द्र माथुर के ६० के दशक (१९६३ से १९६९) तक के लेखों का महत्व इक्कीसवीं शताब्दी में और बढ़ गया है। समय का रथ चलता रहता है, लेकिन परिस्थितियाँ कभी विकट होती हैं और कभी सुखद। १९९१ में उनके निधन के बाद हिन्दी पत्रकारिता में बड़ी रिक्तता आई है। लेकिन उनके जीवन-मूल्यों और पत्रकारिता को आदर्श मानने वालों की संख्या भी बहुत है।
राजेंद्र माथुर रचनात्मक लेखक नहीं थे लेकिन उनके पीछे भी अंग्रेजी और हिंदी साहित्य की गहरी पृष्ठभूमि थी। इन लोगों के लिए समाचार पत्र प्रकाशित-संपादित करना सिर्फ एक प्रोफेशन नहीं था।ये अपने विचार भी देना चाहते थे। अपने विचारों के साथ ही समाचारों को भी देखते थे तो उनके बनाए हुए समाचार या उनके दिशा-निर्देशों में बनाए गए समाचारों में विचारों की गंध होती थी, विश्लेषण होता था, पूरे समाज की समझ होती थी। वे खाली कटे-छँटे समाचार नहीं होते थे कि सिर्फ एक घटना है और उसे दे दिया, ऐसा नहीं होता था और इस मामले में मैं समझता हूँ कि सबसे प्रोफेशनल एटीट्यूड राजेन्द्र माथुर का था, हालाँकि इस मामले में अज्ञेय भी बेहद योग्य और कुशल संपादक थे। उन्होंने भी, जब वे 'नवभारत टाइम्स' के संपादक हुए तो उसे एक नया तेवर दिया, नई तरह की पत्रकारिता दी और संयोग से उसके बाद ही राजेंद्र माथुर आ गए।
- राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र माथुर व्यक्ति नहीं विचार थे श्री राजेन्द्र माथुरजी ने कलम के माध्यम से न केवल मध्यप्रदेश अपितु देश की पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान की है। श्री माथुर ने नये दौर के पत्रकारों और लेखकों के लिये पत्रकारिता के आदर्शमानदण्ड स्थापित किये हैं। श्री माथुर के द्वारा दिखाये गये मार्ग पत्रकारिता के क्षेत्र में मिल के पत्थर साबित होंगे
- शिवराजसिंह चौहान
राजेन्द्र माथुर ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया। उनकी पत्रकारिता विशुद्ध राष्ट्रवाद को समर्पित थी। जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा एवं पार्टीवाद से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त में राजेन्द्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है
-रामबहादुर राय
‘‘नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगे, इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ एवं केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों तक राजेन्द्र माथुर ‘एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया‘ जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे। राजेन्द्र माथुर जैसे प्रत्येक व्यक्ति के चले जाने के पश्चात ऐसा कहा जाता है कि अब ऐसा शख्स दुबारा दिखाई नहीं देगा। लेकिन आज जब हिंदी तथा भारतीय पत्रकारिता पर निगाह डालते हैं और इस देश के बुद्धिजीवियों के नाम गिनने बैठते हैं तो राजेन्द्र माथुर का स्थान लेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। बड़े और चर्चित पत्रकार बहुतेरे हैं, लेकिन राजेन्द्र माथुर जैसी ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन किसी और में दिखाई नहीं दी।‘‘
-विष्णु खरे