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अमेरिका (यूएसए) में नया राष्ट्रपति चुना जाना है। एक साल पहले से नए राष्ट्रपति के लिए गतिविधियां शुरू हो गई। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी पूरा जोर लगा रही है कि राष्ट्रपति उन्हीं का हो। अमेरिका की नियति है कि वहां राष्ट्रपति चुने जाने के दो साल बाद ही अगले राष्ट्रपति के चुनाव की गतिविधियां शुरू हो जाती है। 2012 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दोनों ही प्रमुख पार्टियों ने बड़ी मात्रा में धन खर्च किया था। एक अनुमान है कि डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियों का चुनाव खर्च 11 अरब 40 करोड़ डॉलर (भारतीय रुपए के वर्तमान मूल्य के अनुसार करीब 775 अरब)के बराबर था। उस समय रुपए की कीमत ज्यादा थी। अनुमान है कि इस बार राष्ट्रपति पद के चुनाव में विज्ञापन का खर्च इससे भी 20 प्रतिशत अधिक होगा। इस खर्च का 7 से 10 प्रतिशत तक डिजिटल मीडिया पर खर्च होने का अनुमान है।

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चुनाव खर्च के हिसाब से देखा जाए तो डिजिटल मीडिया का हिस्सा बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन फिर भी कहा जा रहा है कि अमेरिका का अगला चुनाव सोशल मीडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा। सोशल मीडिया की भूमिका से ही नया राष्ट्रपति चुनने में मदद मिलेगी। एक जमाने में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में टेलीविजन न्यूज चैनलों की प्रमुख भूमिका होती है। टीवी पर होने वाले लाइव डिबेट में प्रमुख उम्मीदवारों को देखकर ही लोग फैसला ले लेते थे कि उन्हें किसके पक्ष में वोट देना है।

पिछले राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा ने सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया था। सोशल नेटवर्किंग साइट रेडिट में उन्होंने ‘आस्क मी एनी थिंग’ अभियान चलाया था, जिसके तहत कोई भी मतदाता कोई भी सवाल कर सकता था और वे उसका जवाब इस साइट पर देते थे। उनके प्रतिस्पर्धी भी सोशल मीडिया पर सक्रिय थे, लेकिन उनकी सक्रियता उतनी तेज और तर्कपूूर्ण नहीं थी। उनके प्रतिस्पर्धी केवल अपनी गतिविधियों की जानकारी देने तक सीमित थे। मतदाताओं से संपर्क वे नहीं बना पाए।

सोशल मीडिया के एक्सपर्ट मानते है कि इस चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका निर्णा़यक होगी। कुछ ऐसे लोग भी है, जो मानते है कि सोशल मीडिया की भूमिका तो होगी, लेकिन वह निर्णा़यक होगी, इसमें संदेह है। अमेरिका में अधिकांश युवा मतदाता टीवी न्यूज चैनलों और अखबारों की तुलना में सोशल मीडिया का उपयोग ज्यादा करते हैं। जो लोग मतदाता नहीं हैं और युवा हैं वे भी राजनैतिक चर्चा के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। ये किशोरवय अमेरिकी भले ही वोट न देते हो, पर वे मतदाताओं को प्रभावित करने की ताकत जरूर रखते हैं।

एक अमेरिकी संगठन ने हाल ही में एक शोध की तो पता चला कि 18 से 24 साल तक के युवाओं के बीच सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा संपर्क सूत्र है। यह वर्ग सबसे पहले सोशल मीडिया पर कोई भी जानकारी हासिल करता है। इस आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या 34 प्रतिशत बताई जाती है। टेलीविजन पर होने वाली डिबेट से प्रभावित होने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक है, लेकिन 34 प्रतिशत ही एक बहुत बड़ा आंकड़ा है। यहीं एक कारण है कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार अपने चुनावी खर्च में सोशल नेटवर्क साइट पर अधिक ध्यान दे रहे है।

अमेरिका में हुई एक दूसरी रिसर्च के अनुसार 15 से 25 वर्ष की आयु के लोग 41 प्रतिशत है और वे अपने किसी भी राजनैतिक कार्य के लिए सोशल मीडिया पर ही चर्चा करना उचित समझते है। ये युवा सोशल वेबसाइट पर तो अपने विचारों को प्रकट करते ही है, साथ ही मोबाइल के एप्स पर भी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बारे में टिप्पणियां और उनके वीडियो शेयर करते है। इसका मतलब यह है कि अमेरिकी युवा चाहे वोटर हो या ना हो, वह सोशल मीडिया पर अपनी राजनीतिक समझ को शेयर करने में संकोच नहीं करते।

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जाएंगे, सोशल मीडिया पर पार्टियों का ध्यान और बढ़ेगा। चुनाव खर्च का हिस्सा सोशल वेबसाइट्स पर बढ़ता जाएगा। सभी उम्मीदवार सोशल मीडिया का लीवरेज अधिक से अधिक लेना चाहेंगे।

डोनाल्ड ट्रम्प ने करीब सालभर पहले ही इसकी शुरूआत कर दी है, जब वे सोशल मीडिया पर धमाकेदार शुरूआत कर चुके थे। यहां तक कहा जाने लगा था कि डोनाल्ड ट्रम्प किसी पार्टी के नहीं, ट्विटर के उम्मीदवार है। डोनाल्ड ट्रम्प खुद वहां के बड़े मीडिया साम्राज्य के मालिक है। ऐसे में उन्हें सोशल मीडिया एक अतिरिक्त स्त्रोत के रूप में नजर आना स्वभाविक है।

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डोनाल्ड ट्रम्प का मैदान में कूद पड़ना मीडिया के लिए किसी धमाके से कम नहीं। न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तम्भ लेखक निकोलस क्रिस्टोफ ने शनिवार को अपने कॉलम में लिखा कि हमें ट्रम्प को नहीं भूलना चाहिए, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे कौन सी शक्तियां है, जो ट्रम्प को शक्तिशाली बना रही है। ट्रम्प के मैदान में आते ही सर्कुलेशन और रेटिंग की चर्चाएं तेजी से होने लगी। दरअसल मीडिया को ट्रम्प जैसे आदमी की जरूरत है, जो उनके बाजार में उछाल ला दे। ट्रम्प की हरकतें मीडिया के बाजार को उछाल दे रही है। अमेरिका के मास मीडिया को यह बात मंजूर नहीं है कि राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल व्यक्ति किस तरह की भाषा इस्तेमाल करता है। जाहिर है अमेरिकी मास मीडिया के अपने लाइक्स और डिसलाइक्स है, सोशल मीडिया में यह बात नहीं है।

अमेरिका में सोशल मीडिया के विशेषज्ञ प्रोफेसर झेनेप तुफेक्सी का मानना है कि ट्रम्प के समर्थक जिस तरह से सोशल मीडिया पर प्रचार करते है, वह सुखद नहीं है। वे कह रहे है कि हमें किसी बड़े मीडिया संस्थान पर भरोसा नहीं है। वे खुलकर अमेरिका में रह रहे मुस्लिमों के खिलाफ अदावत दिखाते है और कहते है कि अमेरिका कानून इन मुस्लिमों के यहां गिरवी रखा हुआ है। अमेरिकी इतिहास में इस तरह की बातें पहले नहीं हुई।

सोशल मीडिया की प्रमुख साइट्स ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए कमर कस ली है। नए-नए प्रयोग किए जा रहे है और अधिकाधिक रेवेन्यु जनरेट करने की कोशिश की जा रही है। ट्विटर ने अपने दो एप्स बंद कर दिए है। जो ये बताते थे कि राजनेताओं ने अपने कौन-कौन से संदेश डिलीट किए है। मतलब यह है कि अब नेताओं के लिए कोई भी बात कहकर पलटना आसान हो गया है। ट्विटर ने एक पीआर कंपनी से समझौता भी किया है, जिसके अनुसार चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए रेड कार्पेट बिछाना आसान है।

फेसबुक ने भी अमेरिका राष्ट्रपति पद के चुनाव को देखते हुए नए रणनीति बना ली। इस रणनीति में वीडियो एडवरटाइजिंग को महत्व दिया गया है। फेसबुक के अमेरिका स्थित इंडस्ट्री फॉर पॉलिटिक्स एंड गर्वमेंट के प्रमुख एरिक लॉरेंस ने कहा है कि वीडियो विज्ञापनों की मदद से बड़ी संख्या में मतदाताओं और समर्थकों को जुटाना और चुनाव जीतना आसान हो गया। अमेरिका में फेसबुक के 20 करोड़ से अधिक एक्टिव यूजर्स है। फेसबुक ने उम्मीदवारों से मिलने और उनके प्रचार की रणनीति बनाने के लिए एक अलग ही टीम बना ली।

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स्नेपचैट ने दस सेकंड के वीडियो वाले राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक अलग कैटेगरी बना डाली। उसके लिए उम्मीदवारों ने बुकिंग भी शुरू कर दी है और विज्ञापन भी दिखाए जा रहे है। स्नेपचैट ने इस खास अभियान के लिए गूगल के एक प्रमुख अधिकारी रौंब सालीटेरमन को अपने यहां मोटेवेटम पर बुला लिया है और इस विज्ञापन अभियान का प्रभारी बना लिया है।

गूगल के चुनावों में अलग तरीके से कमाई करेगा। गूगल सर्च में वह सर्च स्पांसर कर रहा है। यानि अगर आप अमेरिकी चुनाव सर्च करेंगे, तो पहले उन उम्मीदवारों के बारे में रिजल्ट आएंगे, जो उसे पैसा दे रहे है। यू-ट्यूब भी अपने वीडियो विज्ञापनों को नया रूप दे रहा है और उसके लिए नई दरें तय कर रहा है। गूगल ने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी ली डुन को चुनाव विज्ञापनों का दायित्व दिया है। गूगल और यू-ट्यूब इस तरह के प्रोग्राम बना रहे है, जिससे लोगों को उनकी भौगोलिक स्थिति और भाषा के अनुसार सर्च के रिजल्ट नजर आए। 2016 का साल वीडियो चुनाव अभियानों के लिए ही जाना जाएगा, जिसका नतीजा अगले वर्ष सामने आना है।

बड़ी संख्या में शोधकर्ता इस क्षेत्र में कार्य कर रहे है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को सोशल मीडिया किस तरह अपने पक्ष में भुना ले। एक मार्च को अमेरिकी में कई राज्यों में प्रारंभिक चुनाव हुए है। जिनके आधार पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तय होंगे। इन चुनावों के दौरान सभी प्रमुख उम्मीदवारों ने अपने स्मार्ट फोन का इस्तेमाल चुनाव प्रचार के तंत्र में रूप में किया। सोशल मीडिया के मैट्रिक्स पर डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता तेजी से बढ़ती बताई गई। ट्विटर पर ही उनके एक साल में दोगुने फॉलोअर हो गए। डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति चुनाव का सबसे प्रभावशाली ट्विटर पाया गया। ट्रम्प ने पिछले महीने प्रतिदिन औसत 16 ट्वीट पोस्ट किए। हजारों की संख्या में इन ट्वीट को रि-ट्वीट भी किया गया।

सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर एक ऐसा वर्ग भी है, जो यह मानता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चयन में उसकी भूमिका वह नहीं होगी, जिसकी चर्चा की जा रही है। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव पहला इंस्टाग्राम इलेक्शन होगा। जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार 2014 में हुआ भारत का लोकसभा का चुनाव पहला गूगल प्लस इलेक्शन था। एक अन्य मीडिया के अनुसार भारत का चुनाव फेसबुक इलेक्शन था।

जैसे-जैसे राजनीति बदल रही है, सोशल मीडिया भी बदल रहा है। एक बड़ा वर्ग मानता है कि सोशल मीडिया चुनाव में रंग भर सकता है, माहौल बना सकता है, लेकिन निर्णय तो मतदाता ही करते है।

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