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102 में अमिताभ ने तो जादू किया ही है, 75 साल के बूढ़े के रूप में ऋषि कपूर ने भी कम जादू नहीं किया। वास्तव में फिल्म के हीरो ऋषि कपूर ही हैं, जिनके आसपास पूरी कहानी घूमती है। ऋषि कपूर ने भी मौके को भुनाने में कसर नहीं छोड़ी। 27 साल बाद यह जोड़ी फिर पर्दे पर आई है और दर्शकों को मिली कमाल की कॉमेडी।

इस फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है। गानों के नाम पर मुख्य रूप से पुराने कैसेट ही बजाए गए है। मार-धार के दृश्य है ही नहीं, केवल कॉमेडी और भावनात्मक दृश्य है। ऐसी साफ-सुथरी कॉमेडी की पूरे परिवार के साथ लोग सिनेमा का मजा लेते नजर आए।

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कहानी बुनी ही गई है अमिताभ और ऋषि कपूर के लिए। कहानी में फिलास्फी भी है और जिंदगी जीने के सूत्र भी। कमी है तो यह कि पूरी कहानी सम्पन्न उच्चमध्य वर्गीय परिवार की कहानी है, जहां आर्थिक परेशानियां नहीं है। सूत्र वाक्य यह है कि अगर बच्चे जवान होने पर आपको भुला दें, तो जरूरी नहीं है कि आप भी उनकी स्मृतियों में खोए रहे। केवल उनके बचपन की स्मृतियां ही सहेजने के काबिल है।

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फिल्म जिस मोड़ पर जाकर खत्म हुई, वह कई लोगों को अखरेगा भी। आप जिन बच्चों को नालायक समझते हैं, हो सकता है उनकी भी कोई मजबूरी हो। अमिताभ बच्चन का यह डायलॉग अच्छा है। मैं मरने के सख्त खिलाफ हूं... जब तक जिंदा हूं, तब तक मरना नहीं चाहता। जिंदा हो, तो जिंदा दिली से रहो।

वृद्धावस्था को लेकर यह एकदम नए तरीके की फिल्म है। बुजुर्गों को अपने लिए जगह तलाशते तो बहुत फिल्मों में देखा गया है, लेकिन इस फिल्म में एक अलग दृष्टिकोण पेश किया गया है। पूरे परिवार के साथ यह फिल्म खुशी-खुशी देखी जा सकती है। पैसा वसूल फिल्म।

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