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हाथों की लकीरें भी गजब होती हैं - रहती तो मुट्ठी में हैं, पर काबू में नहीं रहती। यह संवाद सोच-समझकर संजू फिल्म में रखा गया होगा। परेश रावल और रणबीर कपूर की शानदार एक्टिंग के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है। 47 साल की मनीषा कोइराला 58 साल के संजय दत्त की मां की भूमिका में हैं और अगर आपको यह देखना हो कि अगर आपके पास बेशुमार दौलत हो, तो कोई नशेड़ी, गंजेड़ी, भंगेड़ी, वेश्यावृत्ति का आदी, व्यभिचारी भी कहानी के बूते पर सहानुभूति खरीद सकता है।

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संजू फिल्म इस बात की गवाह है कि अगर आपके पास बेशुमार दौलत हो, तो आप न केवल अपनी जीवनी लिखना-छपवा और बंटवा सकते है, बल्कि राजकुमार हिरानी से फिल्म भी बनवा सकते है। जो आदमी अपनी मां का न हुआ, बाप का न हुआ, बहन का न हुआ, दोस्त का न हुआ, प्रेमिका का न हुआ, पुरानी बीवियों ऋचा शर्मा और रिया पिल्लई का न हुआ, देश का नहीं हुआ, कैंसर से लड़ रही मां के अस्पताल के वार्ड में नशाखोरी करता रहा, खास दोस्त की होने वाली बीवी के साथ हमबिस्तर हो गया, वह आदमी भी इस नाम पर सहानुभूति बटोर लेता है कि उसकी जिंदगी कितने उतार-चढ़ाव से भरपूर है। राजकुमार हिरानी के लिए अब दाऊद की कहानी पर फिल्म बनाना ही बाकी है, जिसके साथ भी इस अत्याचारी मुल्क भारत ने बहुत जुल्म किए और देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। पुलिस और रॉ तक उसके पीछे पड़ी है और वह बेचारा जैसे-तैसे क्रिकेट का सट्टा और दूसरे धंधे करके पापी पेट भर रहा है।

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राजकुमार हिरानी की यह फिल्म इसलिए अच्छी नहीं कही जा सकती कि इसमें ऐसे घृणित पात्र संजय दत्त के प्रति घृणा के बजाय सहानुभूति उभरने लगती है। असली सहानुभूति के पात्र तो उसके पिता, पूर्व मंत्री, सामाजिक कार्यकर्ता सुनील दत्त हैं। जिन्होंने हिरोशिमा से नागाशाकी तक और मुंबई से लेकर अमृतसर तक की शांति यात्राएं की थी, लेकिन जिन यात्राओं ने उन्हें जीते-जी मार डाला, वह थी उनके घर से 10 साल तक निरंतर कोर्ट, वकील और मीडिया से मिलने की जद्दोजहद।

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कोई व्यभिचारी व्यक्ति ही 300 से अधिक महिलाओं के साथ हमबिस्तर हो सकता है। वह कहता है कि इस आंकड़े में वेश्याओं के साथ हमबिस्तर होने का आंकड़ा शामिल नहीं है। दुनिया का कोई नशा ऐसा नहीं, जो उसने नहीं किया हो, लेकिन फिर भी वह महान है, क्योंकि फिल्म के निर्माता राजकुमार हिरानी है, जिन्होंने सुनील दत्त के आग्रह पर ही मुन्नाभाई एमबीबीएस बनाकर नशेड़ी संजय दत्त को सम्मान दिलवाया था।

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बेशक, इस फिल्म में कई मार्मिक दृश्य है। एक पिता का अपने बेटे के प्रति नरम रुख और उसे सही रास्ते पर लाने की जद्दोजहद। एक तरफ वह शख्स अपनी बीमार, कैंसर पीड़ित पत्नी के इलाज की समस्या से जूझ रहा है और दूसरी तरफ अपने इकलौते नशेड़ी पुत्र के इलाज की चुनौती से। हालात बदतर होने पर उसे अपना बंगला तक बेचना पड़ा। इस फिल्म में संजय दत्त की पहली और दूसरी पत्नी ऋचा और रिया का जिक्र तक नहीं है। ऋचा से जन्मी बेटी त्रिशला दत्त का भी जिक्र तक नहीं है। उनका क्या कोई संघर्ष नहीं था। फिर कैसी बॉयोपिक है यह? केवल मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू।

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परेश रावल ने गजब की एक्टिंग की है। रणबीर कपूर तो रणबीर कपूर लगे ही नहीं। पूरे संजय दत्त लगे। पूरी फिल्म देखते वक्त यही लगता है कि आखिर क्या कसूर रहा होगा बेचारे सुनील दत्त, नरगिस दत्त, प्रिया दत्त, नम्रता दत्त, ऋचा शर्मा, रिया पिल्लई और ऐसी अनेक शख्सियत का। यह फिल्म इस बात का एहसास जरूर कराती है कि कोई व्यक्ति आखिर कितना गलीज भी हो सकता है। राजकुमार हिरानी ने मुन्ना भाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्ना भाई के बाद संजू बनाकर संजय दत्त को बेनकाब कर दिया है। धंधा तो यह फिल्म खूब करेगी, क्योंकि अर्थशास्त्र का नियम है - बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।

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