तिग्मांशु धूलिया को लगता है कि भारत के तमाम पुराने राजा-रजवाड़े कोढ़ हैं। वे अय्याशी, षड्यंत्र, छल-कपट के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। हर एक की कई-कई बीवियां और कई-कई रखैलें होती हैं और भाई-भाई को, पत्नी-पति को, पति-पत्नी को, बाप-बेटे को मरवाने के षड्यंत्र में लगे रहते है। इससे समय बचे तो ही बेचारे बचा-खुचा समय कोर्ट-कचहरी और जेल जाने में खर्च कर पाते है। लगता है तिग्मांशु धूलिया खुद इस डायलॉग का मतलब भूल गए कि जब नाम के अलावा कुछ न बचा हो, तो नाम को बचा-बचाकर खर्च करना चाहिए।
काश, संजय दत्त अभी जेल में ही होते और उनके साथ तिग्मांशु धूलिया भी, तो भारतीय फिल्म दर्शकों को साहेब, बीवी और गैंगस्टर -3 जैसी फिल्म नहीं झेलनी पड़ती। गलती तो दर्शकों की भी है, जो संजय दत्त, जिम्मी शेरगिल, माही गिल, चित्रांगदा सिंह आदि के नाम पर फिल्म देखने चले गए। पुराने राजा-रजवाड़ों पर बनी इस फिल्म को देखने के बाद अगर किसी के मन में राजसी भाव जागे, तो वह फिल्म बनाने वाले को दस कोड़े की सजा जरूर दे सकता है। फिल्म देखकर इच्छा होती है कि काश, तिग्मांशु खुद भी रशियन रोलेट का खेल खेलते होते, शायद उनके भी भेजे में एक गोली चली जाती और दर्शक राहत की सांस लेते।
इस फिल्म में दर्शकों ने अपना पैसा और वक्त खोया, सोहा अली खान, नफीसा अली, कबीर बेदी, दीपक तिजोरी जैसे कलाकारों ने प्रतिभा, संजय दत्त ने बची-खुची इज्जत और जाने-माने फिल्म समीक्षकों ने अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगा दी। सोहा अली, कबीर बेदी, नफीसा अली को फिल्म में क्यों ठूंसा, यह समझ से परे है। चित्रांगदा सिंह, माही गिल और संजय दत्त कुछ दृश्यों में ही ठीक लगे है, बाकी में वे पकाते है। फिल्म में न तो कुछ रोमांचक है और न ही दर्शनीय।
पुराने राजा-महाराजाओं की आपसी लड़ाई, अय्याशी, दिखावा और धोखे पर कई फिल्में बन चुकी है। इसमें भी वही सबकुछ है, लेकिन एक दम अविश्वसनीय और घटिया तरीके से। संजय दत्त को एक ऐसे पूर्व राज परिवार का सदस्य बताया है, जो 20 साल लंदन में रहकर आपराधिक कृत्य करता रहता है। वह रशियन रोलेट जैसे जानलेवा खेल का विशेषज्ञ है और उसी के जरिये पैसे कमाता है।
भारत में तो राज परिवारों के पास करने के लिए कुछ है ही नहीं। वे अपनी पुरानी हवेलियां और महल होटल में तब्दील कर चुके हैं (धड़क में भी यही था)। अब उन राज परिवारों में सत्ता की भूख, अहंकार, षड्यंत्र, अपराध की भावना और विलासिता के लिए तड़प के अलावा कुछ बचा नहीं है।
फिल्म समीक्षक कितने भी स्टार दें, यह एक महान घटिया फिल्म है और इसे माइनस में स्टार मिलने चाहिए। देश में कोई ऐसा कानून बनना चाहिए, जो ऐसी घटिया फिल्म बनाने वालों को कुछ साल के लिए फिल्म बनाने से रोक दें। जैसे चुनाव आचरण संहिता का उल्लंघन करने पर नेता को 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है। वैसा ही कानून बॉलीवुड वालों के लिए भी होना चाहिए।