सन 2007 में आई चक दे इंडिया और इसी वर्ष आई सूरमा की तरह गोल्ड भी हॉकी के मैदान में खेल की कहानी है। तीनों ही फिल्मों में हॉकी मैच को देशभक्ति से जोड़कर देखा गया। सूरमा संदीप सिंह के जीवन पर आधारित थी, तो गोल्ड 1948 के लंदन ओलम्पिक में भारत की टीम द्वारा स्वर्ण पदक जीतने को लेकर है। चक दे इंडिया में कोच प्रमुख था, सूरमा में खिलाड़ी और गोल्ड में टीम का असिस्टेंट मैनेजर। १५ अगस्त को रिलीज करने के पीछे भी दर्शकों की भावनाओं को भुनाना उद्देश्य रहा है।
फिल्म में केवल देशप्रेम होता, तो शायद दर्शक पसंद नहीं करते। इसलिए इस फिल्म में तमाम फार्मूले मिला दिए गए। हॉकी फेडरेशन की अंदरूनी राजनीति, टीम के खिलाड़ियों में अहंकार, क्षेत्रीयतावाद, टीम के असिस्टेंट मैनेजर अक्षय कुमार द्वारा घर फूंक तमाशा देख वाला सिद्धांत, अक्षय कुमार की पत्नी बनी मौनी रॉय का परंपरागत देशी घरेलू महिला जैसा व्यवहार और इस सबसे बढ़कर 1948 के ओलंपिक में भारत की जीत।
बीच-बीच में पति-पत्नी की नोक-झोक, शराब में डूबे अक्षय कुमार के अतिनाटकीय दृश्य, देश के विभाजन की झलक, फिल्म्स डिवीजन की न्यूज रील के फूटेज, साधकों की कमी में खेल का प्रशिक्षण लेते खिलाड़ी और अंत में भारत के गोल्ड मैडल जीतने पर लंदन के स्टेडियम में लहराता तिरंगा, जन-गण-मन का गायन और भावुक फिल्म दर्शकों की विदाई। खेल खतम, पैसा हजम।
फिल्म की शुरुआत द्वितीय विश्व युद्ध के पहले बर्लिन (जर्मनी) ओलंपिक के 1936 के दृश्यों से होती है। उसके बाद दूसरे विश्व युद्ध के कारण दो ओलंपिक नहीं हो पाते और 1948 में ब्रिटिश झंडे के तले हॉकी खेलने वाली टीम भारत और पाकिस्तान की दो टीमों में बंट जाती है।
पूरी फिल्म अतिनाटकीयता से भरपूर है। अक्षय कुमार ने इसके बावजूद अपने लिए खुद की स्टाइल दिखाने के मौके ढूंढ लिए है। फिल्म देखकर लगता है कि जिस तरह अभी क्रिकेट का क्रेज नजर आता है, वैसा कभी हॉकी का रहा होगा। तब हॉकी के खिलाड़ी भी स्टार और सुपरस्टार हुआ करते थे। तब हॉकी खेलने वालों में भी पैसे वालों का ही वर्चस्व था और खेल संगठन पर भी।
फिल्म के हिसाब से बात करें, तो 1940 के आस-पास के दृश्यों को फिल्माना निश्चित ही कठिन रहा होगा। फिल्म के निर्देशक रीमा कागती ने पूरी कोशिश की कि पुराना जमाना पर्दे पर लौट आए। अमित साध, कुणाल कपूर, विनीत कुमार सिंह, सनी कौशल, निकिता दत्ता, दलिप ताहिल, भावशील सिंह साहनी, अब्दुल कादिर अमीन ने भी अच्छा अभिनय किया। चक दे इंडिया और सूरमा में जिस तरह हॉकी को जीवंत कर दिया गया था, वैसा इस फिल्म में नहीं हो पाया है। एकता कपूर की फार्मूला फिल्म देखने से यह फिल्म देखना बेहतर माना जा सकता है।