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ज्योति प्रकाश दत्ता सरहद, बॉर्डर, रिफ्यूजी, एलओसी कारगिल जैसी फिल्में बना चुके हैं, अब वे पल्टन लेकर आए हैं। इस फिल्म में उन्होंने नाथू ला दर्रे के पास की हुई झड़प को सिनेमा के पर्दे पर उतारा है। सिक्किम को बचाने के लिए भारतीय सेना चीन की सेना से टकराई थी, उसी के असली किरदारों को लेकर यह फिल्म बनाई गई है। सैनिकों और देशप्रेम से जुड़ी इस फिल्म में नए पन की कमी अखरती है। 1962 के युद्ध में शहीदों के घर आने वाले तार इस तरह वितरित करते दिखाए गए है, मानो अखबार बांटे जा रहे हो। शुरूआत के इस दृश्य से ही फिल्म अतिरंजना की शिकार लगती है।

जेपी दत्ता को भारतीय न्यूज चैनलों के स्टाइल की नकल करने की जरूरत नहीं थी। जिस तरह हमारे न्यूज चैनल किसी के शहीद होने पर शहीद के माता-पिता और बच्चों के रोने के दृश्य किस तरह बार-बार दिखाते है, वैसे ही इस फिल्म में भी दिखाए गए है। मेरी निजी राय है कि शहीदों के रोते-बिलखते परिजनों और उनकी सुलखती चिताओं को दिखाने के बजाय उनकी वीर गाथाओं का वर्णन किया जाना चाहिए। फिल्म के अंत में भी जेपी दत्ता ने शहीद सैनिकों की कतारबंद चिताएं दिखाई है, जिन्हें देखकर नई पीढ़ी के लोग शायद यह सोचेंगे कि सेना में भर्ती होना ही नहीं है। इस तरह एक सकारात्मक विचार नकारात्मक भावनाओं को जन्म दे देता है।

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जेपी दत्ता के फॉर्मूले वही पुराने है। युद्ध भूमि में सैनिक, फ्लैशबेक में उसके माता-पिता के किस्से, शादी-शुदा है, तो बीवी की प्यारी बातें, शादी होने वाली है, तो माशुका या मंगेतर के साथ इश्क की बातें और बार-बार यह दोहराना कि मैं वापस आ रहा हूं। शुरू में ही एहसास हो जाता है कि बंदा युद्ध में शहीद होगा। अगर सैनिक फौलाद का जिगर रखते है, तो उनके घर वाले भी फौलाद के ही होते है, उन्हें रोता-बिलखता दिखाना नकारात्मकता बढ़ाता है।

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फिल्म में बताया गया है कि हमारा तिरंगा भले ही हवा में लहराता हो, लेकिन वास्तव में वह हमारे सैनिकों की सांसों से लहराता है। हथियार फौजियों की शरीर के हिस्से होते है और फौजी को घर से आने वाली चिट्ठी और दुश्मन की पहली गोली का इंतजार रहता है। कोई भी फौजी युद्ध नहीं चाहता, क्योंकि युद्ध में सबसे बड़ा नुकसान उसी का है, लेकिन मात्रभूमि की रक्षा उसका कत्र्तव्य है। युद्ध करते वक्त फौजी इसलिए लड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि जिन्हें वह प्यार करता है, उन्हें पीछे अपने घरों में छोड़कर आया है।

फिल्म बताती है कि नाथू ला दर्रे के पास फैंसिंग जैसे काम करने के लिए भारतीय सेना में कितनी असहाय जैसी स्थिति थी। जैकी श्रॉफ मेजर जनरल बने है और हांफते हुए बात करते है। इस फिल्म में महिला अदाकारों के पास करने के लिए कुछ था ही नहीं, जो कुछ था अर्जुन रामपाल, सोनू सूद, हर्षवर्धन राणे, गुरमित चौधरी, लव सिन्हा, सिद्धांत कपूर आदि के हाथ में ही था। सोनल चौहान, ईषा गुप्ता, दीपिका कक्कर और मोनिका गिल की भूमिकाएं छोटी-छोटी ही है।

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इंटरवल के पहले फिल्म की भूमिका बहुत लंबी हो गई है। दर्शकों को एहसास हो जाता है कि आगे क्या होने वाला है। फिल्म में भारतीय थल सेना की वीरता तो नजर आती है। युद्ध की रणनीति और कौशल गायब रहता है। इतनी बड़ी सीमा पर 50-60 सैनिक ही एक बार में दिखाए गए है। युद्ध फिल्म देखने के शौकीन लोगों के लिए यह दिलचस्प फिल्म है।

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