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अगर मंटो को पढ़ा है तब तो इसे देखना बनता ही है। और ये नवाज़ुद्दीन भी गज़ब है! मांझी में पूरा दशरथ मांझी लगा और मंटो में वह मंटो लगता है जब बोलता है - आखिर में तो अफ़साने ही रह जाते हैं और रह जाते हैं किरदार ! मुंबई (तब के बम्बई) के फारस रोड की रेड लाइट बस्तियों में जाने पर सवाल उठाने पर कहता है - अच्छा, उन्हें वहां जाने की खुली इजाजत है और हमें लिखने की भी नहीं? मैं वही लिखता हूं जो जानता हूं, तो देखता हूं, मैं तो बस अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूं, जिसमें समाज अपने आप को देख सके।

मंटो कभी टाइप नहीं करते थे। कहते थे कि टाइपिंग के शोर से मेरे खयालात की तितलियां उड़ जाती हैं। वे पेन्सिल से लिखते थे और दावा करते थे कि उसे मिटाया नहीं जा सकता। वे मानते थे कि आप केवल अपने जज़्बातों के बारे में ही ही कह सकते हैं, दूसरों के जज़्बात आप कैसे समझ सकते हैं? एक दोस्त से कहते हैं - तुम्हें दोस्त बनाया है, अपने ज़मीर की मस्जिद का इमाम थोड़े ही बनाया है!

नंदिता दास ने मंटो की जिंदगी के उतार-चढ़ाव, विवाद, पागलपन/ जूनून के खुशनुमा पलों को तो बेहद करीने से पिरोया गया है। साथ ही मंटो के जीवन की सबसे बड़ी शक्ति, उनकी पत्नी।।। के भी जीवन को उकेर कर रख दिया गया है। मंटो की जिंदगी में वास्तविक और कल्पना वाले समाज में जो अंतर था, उसे इस फिल्म में दिखाया गया है। मंटो के लेखन पर अश्लीलता के आरोप लगे, उन्हें अनेक कड़वे घूंट पीने पड़े, कोर्ट-कचहरी भी जाना पड़ा। शराबनोशी और धूम्रपान ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया गया था।

मंटो फिल्म में आजादी के पहले आजादी और आजादी के बाद के दृश्यों को इस तरह पिरोया गया की फिल्म का हर सीन अपने आप में परफेक्ट लगता है। फिल्मी पर्दे पर आप ऐसा महसूस करते हैं मानो आप उसी दौर में जी रहे हो। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने मंटो के रोल में वैसे ही जान फूंक दी है जैसे धोनी की फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत ने जान डाल दी थी।

मंटो के अपने समकालीन साहित्यकारों से बड़े जद्दोजहद के संपर्क रहे हैं। वे फिल्मों में लिखते थे और कई जाने-माने हस्तियों से उनकी अच्छी पटती भी थी। नारीवादी लेखिका इस्मत चुगताई उनमें से एक हैं। इसके अलावा मंटो के नजदीकी दोस्तों में श्याम चड्ढा थे। अशोक कुमार उनके मित्र रहे हैं। कमाल अमरोही, नौशाद और उनकी पत्नी साफियाह को आप किस फिल्म में नजदीक से देख कर समझ पाएंगे।

यह फिल्म देखते हुए कई बार लगता है कि मंटो सचमुच पागल ही थे। एक ऐसा पागल आदमी जिसे अपनेनफे नुक़सान की कोई चिंता नहीं थी, अपनी सेहत की कोई परवाह नहीं थी और न ही सामने वाले के जज्बातों का कोई महत्त्व था। उनकी चिंता थी केवल यथार्थ लिखना।फिल्म निर्माताओं, संपादकों, दोस्तों, पत्नी से उसका व्यवहार बदसलूकी भरा रहा। यहां तक कि अपने शुभचिंतकों और कोर्ट में न्यायाधीश के बारे में उनके खिलाफ वे बोलने से नहीं चूके।

इस फिल्म को देखते-देखते आप उनकी कई कहानियों से रूबरू हो जाते हैं काली सलवार, ठंडा गोश्त, खोल दो, स्याह हाशिये, टोबा तक सिंह। कुछ कहानियां प्रतीक के रूप में दिखाई गई हैं और कुछ वास्तव में कहानी के रूप में ही फिल्माई गई है। फिल्म का अंतिम तक आते-आते लगता है कि मंटो से हटकर सारा ध्यान टोबा टेक सिंह चला जाता है और वहीँ फिल्म समाप्त होती है।

इस फिल्म में फैज़ अहमद फैज़ को देखकर आपकी राय उनके बारे में बदल सकती है !
छोटे छोटे रोल में नंदिता दास ने जावेद अख्त, परेश रावल, ऋषि कपूर, विनोद नागपाल, गुरदास मान, दिव्या दत्ता,दानिश हुसैन को भी लिया है। रसिका दुग्गल ने मंटो की बीवी साफियाह के रोल को जवाज़ुद्दीन की ही तरह शानदार तरीके से निभाया है, जिस पत्नी से मंटो को ज़रा हमदर्दी नहीं थी, क्योंकि उनकी हमदर्दी अपने किरदारों से ही थी।
रीता खुश का प्रोडक्शन का डिजाइन और कार्तिक विजय का छायांकन बेहद खूबसूरती से किया गया है.

देखनीय फिल्म है। बड़े परदे पर देख लो, उसका अनुभव ही कुछ अलग होता है।

22 Sept 2018 8.30 am

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