प्रख्यात गांधीवादी नेता मोरारजी देसाई मानते हैं कि ‘आर्थिक सत्ता आज भी गांवों के पास ही है’, और गांधीवाद पर उतना ही अमल हो सकता है ‘जितना आप चाहेंगे’। प्रस्तुत है मोरारजी भाई से प्रकाश हिन्दुस्तानी की भेंटवार्ता।
मोरारजी देसाई से मिलना-जितना कठिन नहीं है, उससे कठिन है उनसे बातचीत करना। अखबारनवीसों के लिए तो यह और ज्यादा मुश्किल है। प्राय: वे उनसे मिलने को राजी ही नहीं होते, लेकिन जब उन्हें बताया गया कि सारी बातचीत गांधीजी और गांधीवाद पर होगी, तब वे तत्काल तैयार हो गए। समय तय हुआ दोपहर एक बजकर पंद्रह मिनट, तारीख २४ सितंबर। मुलाकात के वक्त वे एकदम ताजातरीन और खुशमिजाज थे और पोस्टकार्ड लिख रहे थे। बिना औपचारिकता के बातचीत शुरू हुई।
अब हम फिर गांधी जयंती मनाने जा रहे हैं, लेकिन गांधीजी ने जिस सुराज्य की कल्पना की थी, उसके अनुरूप हम अपने को कितना ढाल पाए हैं?
आप कितना ढाल पाए हैं? अपने आपसे ही पूछिए, दूसरों से क्यों पूछते हैं, आपने खुद कितना किया है। यदि आप खुद कुछ करते तो दूसरों से पूछते नहीं। पूछने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
मेरी या आपकी बात नहीं है। बात है पूरे देश की। पूरा देश कितना ढल पाया है?
पूरा देश क्या ढल पाएगा? ढल पाएगा कभी? गांधीजी कहते थे सत्यवादी बनो। पूरा देश बन सकता है? सतयुग में भी नहीं हुआ था। अधिकतम कितना हो सकेगा, जितना आप चाहेंगे, उतना।
आज का युवा वर्ग गांधीजी के सिद्धांतों और आदर्शों से दूर क्यों भागता जा रहा है?
कहां भाग रहा है? मैं तो जहां भी जाता हूं, आमसभाओं में, सार्वजनिक जगहों पर, सब जगह ज्यादातर युवा ही होते हैं। युवक ही गांधीजी को सबसे ज्यादा मानते हैं।
बंबई की मिल-हड़ताल को आठ महीने से ज्यादा हो गए हैं। आप इस...
इस पर तो बातचीत करने आप नहीं आए थे। मैं इसका जवाब नहीं दूंगा।
गांधीजी ने भी तो १९७१ में अहमदाबाद में सूती मिल मजदूरों की हड़ताह करवाई थी, जो २१ दिन तक चली थी। गांधीजी हड़ताल कराएं तो वह सही है और दत्ता सामंत कराएं तो गलत। यह तो कोई तर्वâ ही नहीं है।
आप गांधीजी की तुलना इन लोगों से कर रहे हैं?
तुलना नहीं कर रहा हूं। मैं हड़ताल के बारे में पूछ रहा हूं।
गांधीजी की हड़ताल ऐसी हड़ताल नहीं थी। उसमें हिंसा नहीं थी। तब जबर्दस्ती किसी को काम करने से नहीं रोका गया था।
गांधीजी सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते थे, लेकिन आज सारी आर्थिक सत्ता महानगरों पर केन्द्रित हो गई है। आर्थिक सत्ता वैâसे विकेन्दिरत हो सकती है?
ऐसा तो नहीं है। आर्थिक सत्ता आज भी गांवों के पास ही है।
आ ऐसा वैâसे कहते हौं? बंबई की आबादी देश की एक प्रतिशत है, लेकिन जी.एन.पी. में बंबई का योगदान २५ प्रतिशत है। क्या यह आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण नहीं हुुआ?
आपके दिमाग में केवल जी.एन.ी. भरा है। जी.एन.पी. से क्या होता है? और यह तो होगा ही।
गांधीजी राजनैतिक सत्ता को विकेन्द्रित चाहते थे। आज ग्राम पंचायतों की दशा बहुत खराब है। इस बारे में आप कुछ क्यो ंनहीं करते?
आप कुछ क्यों नहीं करते? केवल प्रश्न करते हैं। प्रश्न करने से कुछ नहीं होगा। जैसे आप प्रश्न करते हैं, वैसे मैं भी प्रश्न करता हूं। मेरा भी प्रश्न करने का बराबरी का अधिकार है, लेकिन फिर भी मेरा कहना है कि जो कुछ है, वह बहुत अच्छा है। इस देश का अब कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है।
गांधीवादी संस्थाओं का काम क्या संतोषजनक है?
यह क्यों पूछते हैं कि क्या संतोषजनक है? जैसा आप कर रहे हैं, वैसा वो कर रहे हैं। वो भी मनुष्य ही है। इसी समाज के मनुष्य हैं। तालाब का सारा पानी एक है, ऐसा नहीं कि एक जगह मीठा और एक जगह खारा। कुछ लोग ज्यादा करते हैं, कुछ कम करते हैं। अखबारों में भी तो सब एक सरीखे नहीं होते। कुछ में हिम्मत होती है, कुछ में नहीं। कुछ लोग पैसे लेते हैं। कुछ शराब पीते हैं। उनके बारे में कुछ लिखा आने? औरों के बारे में लिखते रहते हैं। अपनी जमात के बारे में क्यों नहीं लिखते? मैंने तो प्रेस कौंसिल को स्वतंत्र बना दिया कि उसका प्रमुख सरकार ‘नॉमिनेट’ न करें। मैंने कभी किसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा कि ऐसा क्यों लिखा। आपका अधिकार है, जो पसंद आए वह लिखो। अब आपको सच बात लिखने की स्वतंत्रता तो है, पर आप उसका उपयोग न करें तो मैं क्या करूं? तुम भी इस मुलाकात के बारे में चाहो वह छाप सकते हो, लेकिन छपने को देने से पहले मुझे बता देना। नहीं तो मैं कह दूंगा कि यह मैंने नहीं कहा। ऐसा हले हुआ भी है।
लुई फिशर से १९४५ में एक इंटरव्यू में गांधीजी ने कहा था कि यदि आने वाले चंद बरसों में धनाढ्य तबका ट्रस्टीशिप का सिद्धांत लागू नहीं करता तो खूनी क्रांति अवश्यंभावी है। क्या ऐसी कोई भूमिका बन रही है?
मैंने तो यह नहीं पढ़ा। खूनी क्रांति तो इस देश में कभी होगी ही नहीं।
और गैर खूनी क्रांति?
वह होगी। वह तो होती ही रहती है। स्थिति बदलती रहती है। कभी अच्छी, कभी बुरी। क्रांति के लिए हमें अपने आप में विश्वास होना चाहिए। वह आज हम खो बैठे हैं। आप भी खो बैठे हैं, जो ऐसे सवाल ूछ रहे हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि माक्र्सवाद गांधीवाद की पूर्व अवस्था है, क्योंकि जब तक समानता नहीं होगी, सबका भला, सर्वोदय संभव नहीं है।
दोनों में साम्यता नहीं है। गांधीवाद का मानना है कि सबका भला हो। माक्र्सवाद में यह नहीं होता। जो विरोधी है, माक्र्सवाद में उसे खत्म कर दिया जाता है। गांधीवाद में यह है कि जो विरोध करता है, उसे बदलो। उनकी भी सेवा करो। यह दोनों में फर्वâ है। एक में हिंसा है, एक में नहीं है।
गांधीजी वर्णव्यवस्था के खिलाफ थे। वर्ण व्यवस्था खत्म हो रही है, लेकिन धीरे-धीरे वर्ग व्यवस्था आ रही है। आप सहमत हैं?
वर्ग व्यवस्था इस देश में आ ही नहीं सकती। गांधीजी भी वर्ग व्यवस्था के खिलाफ थे। वर्ग-संघर्ष की वकालत उन्होंने कभी नहीं की। लोग एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाएं तो देश का भला वैâसे होगा? आप मुझे नुकसान पहुंचाएं, मैं आपको। इसमें किसका भला होगा। गांधीवाद यही है कि मैं किसी को नुकसान नहीं पहुंचाऊं, कोई मेरा नुकसान करे तब भी।
आज देश में दलीय व्यवस्था है, लेकिन एक दल ने दिल्ली में अना एक ईश्वर चुन लिया है। उसी के इशारे पर काम चलता है। नेतृत्व की क्षमता लोगों में ऊपर से क्यों आती हैं। जनता से क्यों नहीं आती?
लोगों को अपना रास्ता खुद चुनना चाहिए। आप किसी आदमी को सामने रखकर कब तक चल सकते हैं? ऐसा कब तक चलेगा? कोई भी कितने साल तक जी सकता है? सौ साल तक, फिर? लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है। इस देश में जितने संत हुए हैं, उतने दुनियाभर में नहीं हुए। इस देश में जितनी सज्जनता है, सभ्यता है, स्वतंत्रता है, उतनी दुनिया में कहीं नहीं। इससे निकलने की प्रक्रिया चल रही है। आप क्या समझते हैं कि हम नीचे गिर रहे हैं। सन् १९४० में हम जैसे थे, वैसे आज हैं? आज मैं आपको अपमानजनक कोई बात कह दूं तो आ सुन लेंगे?
आम आदमी की जिंदगी बदली है क्या? गलत चीज के खिलाफ लड़ने का हौंसला बढ़ा तो नहीं है।
काफी परिवर्तन आया है। आजादी के हले जितना भ्रष्टाचार था, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज तो लोगों को यह भान हो गया है कि भ्रष्टाचार हो रहा है। भ्रष्ट आदमी भी आज भ्रष्टाचार की निंदा करने लगा है। आपकी अपेक्षा ऐसी है कि लोग एक दिन में सुधर जाएं, ऐसा नहीं हो सकता। अंग्रेजों का राज हमने ही खत्म किया है, लेकिन क्या एक दिन में?
(दिनमान ३-९ अक्टूबर १९८२)