''ऐ मालिक तेरे बंदे हम"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (22).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
इस बार एक प्रार्थना गीत। हो सकता है आपने यह नहीं सुना हो या नहीं गाया हो, पर एक पूरी पीढ़ी इसे स्कूल जाने पर पढ़ाई शुरू होने के पहले गाया कराती थी। चर्चा 1957 में लगी फिल्म 'दो आँखें 12 हाथ' के एक गीत की। मेरा निजी अनुभव है कि इस गीत में प्रार्थना के जो शब्द हैं वे निराशा के पलों में बड़ा सुकून देते हैं। कोई भी इसे आज़मा सकता है। जब कभी मायूसी महसूस हो, तब शांतचित्त होकर इसे सुना जा सकता है। नेकी और बदी का चोली दामन का साथ है। जहाँ पुण्य है, वहां पाप भी है; जहाँ भलाई है, वहां बुराई भी है; जहाँ अपकार है, वहां उपकार भी है। बदी से बचने का एक तरीका है हम मालिक से प्रार्थना करें कि वह हमें बचा ले। इसलिए बचा ले कि जब हम संसार से विदा लेने की बेला आये तो हँसते हुए रवानगी दर्ज करा सकें। एक वही है जो हमें इस दुनिया की बुराइयों से निजात दिला सकता है। हे परम पिता परमात्मा, हम सभी तो तेरे बन्दे हैं। तू ही पालनहार है हमारा।
ऐ मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुए निकले दम
गीत में आगे जिस अँधेरे की बात की गई है वह क्या है? अज्ञान, लालच, स्वार्थ, हिंसा, कटुता, घृणा, द्वेष, असहयोग, प्रतिशोध, पक्षपात, घमंड, अधीरता हमारे जीवन के अँधेरे ही तो हैं। इन अंधेरों से मानव डरा हुआ है। इसमें से कुछ से तो वह खुद भी अपरिचित है। उसे कोई मार्ग ऐसा नज़र नहीं आता जिससे कि मुक्ति हो सके। बुराइयों के इन अंधेरों ने उसकी खुशियों को हर लिया है। उसे रोशनी की कोई किरण नज़र नहीं आ रही। हे परमात्मा, अपनी दमदार रोशनी से हमारे जीवन पथ को आलोकित कर!
हे प्रभु, इंसान तो है ही कमज़ोर ! बुराइयों का पुतला। इन बुराइयों के सामने उसकी कमियों को कौन क्षमा कर सकता है? प्रभु, आप ही हैं जो उसे राह दिखा सकते हैं। पथ को प्रकाशमान कर सकते हैं। आपकी सदाशयता से ही हमारी पृथ्वी पर जीवन है। नीली झीलें, सब्ज़ बागान और हवा है, हरीतिमा है, जो हमारे जीवन का आधार है। हमारे मन में बैर कभी न हो। हमारे कदम केवल प्रेमपूर्ण मार्ग के राही हों।
इस गीत ने लाखों लोगों को प्रार्थना के रूप में नैतिक बल दिया है। इस गीत ने विचारों एवं इच्छाओं को सकारात्मक बनाया है और उनमें निराशा और नकारात्मक भावों को ख़त्म किया है। कर्म का स्थान प्रार्थना नहीं ले सकती, प्रार्थना का स्थान कर्म नहीं ले सकता। प्रार्थना करने से मनुष्य भाग्यवादी कभी नहीं बनता। यदि ऐसा होता तो सभी धर्मों के लोग प्रार्थना करना बंद कर देते या सभी धर्म प्रार्थना के महत्व को नकार देते।
महात्मा गांधी कहते थे -''प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। यह आत्मशुद्धि का आह्वान है। प्रार्थना हमारे भीतर विनम्रता को निमंत्रण देती है।'' ओशो के नजरिये में प्रार्थना ईश्वर से कुछ मांगना, रोना, गिड़गिड़ाना, शिकायत करना नहीं है।अगर आपने प्रार्थना पूरे भाव से की है, तो आपका मन सशक्त हो। जाता है। आपके मन की शक्ति ही उस प्रार्थना के कार्य को पूरा करवा देती है। सच्ची प्रार्थना है : अहोभाव में, ग्रेटीट्यूड में डूबना। संत कबीर ने प्रार्थना में कहा है -मैं कहता अंखियन की देखि, तू कहता कागद की लेखि। मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोयी रे।।
जिस फिल्म का यह गीत है उसके निर्माता-निर्देशक और हीरो थे वी. शांताराम के नाम से मशहूर शांताराम राजाराम वणकुद्रे। पुणे के पास औंध रियासत ने एक आयरिश मनोवैज्ञानिक को जेल में निरुद्ध खतरनाक अपराधियों को खुली जेल में रखकर उन पर प्रयोग करने की इजाज़त दी थी। वी.शांताराम ने उसी घटना को आधार बनाकर पटकथा तैयार की और अपनी फिल्म 'दो ऑंखें बारह हाथ' बनाई। मुख्य भूमिका में वे खुद थे और मुख्य नारी का पात्र बनीं थीं उनकी पत्नी प्रसिद्व नृत्यांगना संध्या।
यह फिल्म आजादी के दस साल बाद 1957 में रिलीज़ हुई थी। देश एक नए आकार में आने को आतुर था। शिक्षा कम थी। अपराध ज्यादा थे। जधन्य अपराध खूब होते थे। कहानी एक सुधारवादी विचारों वाले जेलर आदिनाथ की थी, जो क़त्ल की सज़ा भुगत रहे छह खतरनाक कै़दियों को एक पुराने जर्जर फार्म-हाउस में ले जाकर सुधारने की अनुमति ले लेता है और तब शुरू होता है उन्हें सुधारने की कोशिशों का आशा-निराशा भरा दौर।सुधारवादी जेलर और उसके कैदियों ने बंजर ज़मीन पर खेती का प्रयास किया और बादल उनकी मेहनत पर अपना आशीष बरसाने आते हैं।
इस फ़िल्म का सबसे बड़ा संदेश है नैतिकता का संदेश। फ़िल्म कहीं ना कहीं गांधीवादी विचारधारा का प्रातिनिधित्व करती थी। भारतीय मानस में नैतिकता की गहरी पैठ है जो हमें भटकने से बचाती है। अगर हमसे कोई ग़लत क़दम उठ जाता है तो हम अपराध-बोध के तले दब जाते हैं। इस फ़िल्म में जेलर अपने क़ैदियों को इसी ताक़त के सहारे सुधारता है, उनके भीतर की नैतिकता को जगाता है। यही नैतिकता उन्हें फरार नहीं होने देती। इसी नैतिक बल के सहारे वो कड़ी मेहनत करके फसलें लहलहाते है।
गोल्डन ग्लोब जीतने वाली यह भारत की पहली फिल्म थी। इसकी उतनी चर्चा नहीं हुई, जीतनी इसके बाद आनेवाली मुगले आज़म और पाकीज़ा की हुई थी। लेकिन इसने अमेरिका के बाहर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। इसने 8वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सिल्वर बियर जीता। सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए इसने राष्ट्रपति पुरस्कार भी पाया। भरत व्यास के लिखे सभी गाने पसंद किये गये थे। हमारी फिल्मों में पहला मूविंग शॉट इसी फिल्म में दिखाया गया था। इसके पहले कैमरा फिक्स करके रख दिया जाता था और कलाकार आगे पीछे होकर डायलॉग बोलते थे।
यह प्रार्थना गीत फिल्म की जान था। खूब बजा भी और गाया भी गया। इसने हमें बेहतर इंसान बनाने में मदद की होगी। हम कुछ विनम्र और सहिष्णु बने होंगे। अब फ़िल्में बदल गई हैं। गाने चित्त की शांति के लिए नहीं, फिलर के रूप में होते हैं। उनमें भावों की पवित्रता और अहसासों की कोमलता कम होती जा रही है। भड़भड़कूटे को संगीत और चीख-चिल्लाहट को गायन माना जाने लगा है।
भरत व्यास रचित पूरा गीत :
ऐ मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुए निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम...
ये अंधेरा घना छा रहा,
तेरा इंसान घबरा रहा
हो रहा बेख़बर, कुछ ना आता नज़र,
सुख का सूरज छिपा जा रहा
है तेरी रोशनी में वो दम,
तू अमावस को कर दे पूनम
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुए निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम...
बड़ा कमज़ोर है आदमी,
अभी लाखों हैं इस में कमी
पर तू जो खड़ा, है दयालु बड़ा,
तेरी कृपा से धरती थमी
दिया तूने हमें जब जनम,
तू ही ले लेगा हम सब का ग़म
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुए निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम...
जब जुल्मों का हो सामना,
तब तू ही हमें थामना
वो बुराई करें, हम भलाई करे,
न ही बदले की हो भावना
बढ़ उठे प्यार का हर कदम,
और मिटे बैर का ये भरम
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुये निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम...
फिल्म : दो आँखें 12 हाथ (1957)
गीतकार : पंडित भरत शिवदत्त व्यास
गायिका : लता दीनानाथ मंगेशकर
संगीत : वसंत कृष्ण देसाई
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--प्रकाश हिन्दुस्तानी
08 -09-2023
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