31 जुलाई को मुम्बई यात्रा पर आए एक विदेशी ने टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार देखते ही पूछा कि क्या याकूब मेमन ही भारत के राष्ट्रपति थे, जिनका अंतिम संस्कार किया जा रहा है? जब उसे बताया गया कि नहीं, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम थे और उनको भी कल ही दफनाया गया था।
यह गलतफहमी स्वभाविक ही थी। शक होता है कि कहीं टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकारों को भी तो यह गलतफहमी नहीं हो गई? टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पेज पर याकूब मेमन की खबर को जिस तरह न केवल पहले पेज पर तवज्जों दी, बल्कि अंदर के पन्नों पर भी याकूब मेमन के बारे में ही कॉलम के कॉलम रंग डाले। एपीजे कलाम को सुपूर्द-ए-खाक करने की खबर पहले पेज पर दी, तो जरूर पर आखरी के दो कॉलम में। एक छोटी सी खबर बॉक्स के रूप में भी छापी थी कि राहुल गांधी ने कलाम के अंतिम संस्कार के वक्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नमस्ते कहा। अंदर के पन्नों पर डॉ. कलाम को सुपूर्द-ए-खाक करने की तस्वीर देना भी उसने गवारा नहीं किया। डॉ. कलाम की खबर का शीर्षक भी हास्यास्पद ही था, जो यह बताता था कि कलाम ने मोदी और राहुल को मिलवा दिया। एक दुखद प्रसंग पर दो बड़ी पार्टियों के प्रमुख नेताओं का आपस में मिलना कोई औपचारिक कार्यक्रम के तहत नहीं था।
डॉ. एपीजे कलाम को करोड़ों लोगों ने भीगी आंखों से बिदाई दी। याकूब मेमन की खबरों को तवज्जों देने के कारण उसके जनाजे में भी करीब आठ हजार लोग इकट्ठे हो ही गए। एक ऐसे व्यक्ति के जनाजे में, जो मुंबई में हुए बम धमाकों का दोषी था, जिसमें 257 लोग मारे गए थे और हजारों घायल हुए थे, को इतना महत्व दिया जाना अखबार की सोच बताता है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की तरह ही इंडियन एक्सप्रेस ने भी याकूब मेमन को ज्यादा महत्व दिया। आश्चर्य होता है कि ये वे अखबार है, जिनकी खबरें और सुर्खियां इतिहास रचने का दावा करती है। दावा तो अब भी यह करेंगी, लेकिन वह नकारात्मक होगा। सरकार की एडवाइजरी के बाद भी अंग्रेजी अखबारों ने मेमन के जनाजे की तस्वीरें छापी। सरकारी एजेंसियों को भरोसा होगा कि इन अखबारों के जिम्मेदार लोग सोच समझकर काम करते होंगे, लेकिन उन्हें अपनी दुर्भावना व्यक्त कर ही दी। इन अखबारों की तुलना में उर्दू के अखबार कुछ संतुलित रहे। भारत में यह माना जाता है कि उर्दू अखबारों का एक बड़ा पाठक वर्ग मुस्लिम आबादी का होता है। इसलिए उर्दू अखबारों में थोड़ी सहानुभूति वाली भाषा इस्तेमाल की गई थी। हिन्दी के अखबारों ने भी जिस तरह से मेमन की खबरें प्रकाशित की, वे मेमन के प्रति सहानुभूति ज्यादा व्यक्त करती थी। मेमन की आखरी इच्छा उसकी बेटी से बात करने की थी, जो पूरी की गई, लेकिन एक अखबार ने उसे इस तरह लिखा है मानो मेमन और उसकी बेटी के बीच का पूरा संवाद उसने रिकॉर्ड किया हो।
एक ही शब्द कहा जा सकता है- शर्मनाक !
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