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भारत मेंं समाचार-पत्र उद्योग की चर्चा समीर जैन के बिना नहीं हो सकती। इसी तरह भारत के हिन्दी समाचार-पत्रोंं की बात भी सुधीर अग्रवाल के बिना करना मुश्किल है। ऐसा लगता है कि आज जो समीर जैन हैं, सुधीर अग्रवाल वहीं बनना चाहते हैं। वैसे भी सुुधीर अग्रवाल समीर जैन के अनुयायी हैं। जो कुछ समीर जैन करते हैं, सुधीर अग्रवाल भी करते हैं। सुधीर अग्रवाल का फॉर्मूला है- फॉलो द लीडर। इस फॉर्मूले का फायदा यह है कि इसमें जोखिम नहीं  रहता और कामयाबी की गुंजाइश ज्यादा रहती है। लेकिन जितनी लंबी दाढ़ी समीर जैन के पेट में है, शायद सुधीर अग्रवाल के पेट में नहीं। लीडर की नकल करने के सारे फॉर्मूले कामयाब ही हो, जरूरी नहीं। अगर ऐसा होता, तो डीएनए मुंबई का नंबर-टू अखबार जरूर होता। डीएनए का लक्ष्य मुंबई का नंबर-वन अखबार बनना रहा होगा और कल्पना होगी कि अगर नंबर-वन नहीं बन पाए, तो कोई बात नहीं नंबर-टू तो बन ही जाएंगे।

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समीर जैन और विनीत जैन

जब डीएनए लांच हो रहा था, तब मैंने मित्रों के सामने भविष्यवाणी की थी कि डीएनए फ्लॉप अखबार साबित होगा। इसका आधार यह था कि जितनी तगड़ी मार्केटिंग समीर जैन जानते और करते हैं उतनी सुधीर अग्रवाल नहीं कर पाएंगे। सुधीर अग्रवाल मुंबई में भी दैनिक भास्कर की तर्ज पर डीएनए बेचना चाहते थे। ज्यादा पन्ने, कम कीमत और हर जगह उपलब्धता। वे मुंबई के पाठकों की यह आदत नहीं समझ पाए कि मुंबई के लोगों को ज्यादा पन्नों के अखबार का लालच नहीं होता। वे खुद अखबारों के पुलआउट सुबह-सुबह निकालकर रद्दी में फेंक देते है या फिर ट्रेन के डिब्बे में छोड़ जाते हैं और जहां तक कीमत की बात है मुंबई के पाठकों ने एक समय में 9 रूपए रोज में भी इकॉनॉमिक टाइम्स खरीदा है। इस इकॉनॉमिक टाइम्स के बारे में समीर जैन का दावा है कि कंपनियों के बोर्ड रूम में इकॉनॉमिक टाइम्स का होना अनिवार्य है। यही अखबार हर बैंक, कार्पोरेट हाऊस और बुद्धिजीवी के लिए अनिवार्य सा है। इसे पढ़ना इज्जत की बात है और टेबल पर रखना भी।

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 गिरीश अग्रवाल और सुधीर अग्रवाल

एक और बात सुधीर अग्रवाल नहीं समझ पाए, वह यह है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के पाठक जितने ज्यादा ब्रांड - लायल हैं, उतने किसी भी अखबार के नहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने नए-नए सप्लीमेंट के माध्यम से नए पाठक तो बनाए ही, अखबार का दशकों पुराना स्वरूप भी मुख्य अखबार में कामयाब रखा। गंभीर विषयों पर बड़े-बड़े लेख पढ़ना हो, तो टाइम्स ऑफ इंडिया का एडिट पेज है ही। मुंबई के उपनगरों की खबरे पढ़ना हो तो सबर्बन टाइम्स के पूलआउट और इसके अलावा अलग-अलग विषयों के भी पूलआउट।

समीर जैन का अखबारी साम्राज्य करीब चार हजार करोड़ का है, जो भारत का सबसे बड़ा अखबारी साम्राज्य है ही, विश्व के भी संभवत: सबसे बड़े साम्राज्य में से एक है। समीर जैन का मानना है कि वे अखबार के नहीं, अखबारों के साम्राज्य के मालिक है। वे कहते हैं कि मैं दुकान का नहीं, पूरे बाजार का मालिक हूं। मेरे बाजार में तरह-तरह की दुकानें है। हिन्दी की दुकान, अंग्रेजी की दुकान, तेलुगु की दुकान, अखबार की दुकान, पत्रिका की दुकान, फिल्मफेयर और मिस इंडिया की दुकान। इसके अलावा रेडियो मिर्ची, टाइम्स नाऊ, ईटी नाऊ, संगीत आदि की दुकानें तो है ही।

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समीर जैन की तरह ही उनके भाई विनीत जैन भी समाचार पत्र उद्योग के मसीहा हैं। विनीत जैन ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा था कि हम समाचार-पत्र व्यवसाय में नहीं है, बल्कि हम विज्ञापन के व्यवसाय में है। ऐसा इसलिए कहा गया कि टाइम्स ऑफ इंडिया का 90 प्रतिशत रेवेन्यू विज्ञापन से प्राप्त होता है।

पूरी दुनिया इस बात पर अचरज करती है कि किस तरह समीर जैन ने समाचार-पत्र व्यवसाय को ऊंचाई पर पहुंचाया है और उसे लगातार बनाए रखा है। पूरी दुनिया जब यह मानती है कि कंटेंट इज द किंग, तब समीर जैन मानते हैं कि एडवरटाइजमेंट इज द किंग। जर्नलिज्म इज ओनली फेसिलिटेटर। मतलब यह कि पत्रकारिता विज्ञापन को लाने वाला उत्प्रेरक तत्व है।

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समीर जैन मानते है कि अखबारों को सकारात्मक रवैया अपनाना चाहिए। पैसे देकर अखबार खरीदने वाला और उससे ज्यादा पैसे देकर विज्ञापन देने वाला अखबारों में भूखों की तस्वीरें देखना नहीं चाहता। यह सकारात्मकता धंधे को बढ़ाने के लिए जरूरी है। सुधीर अग्रवाल भी समीर जैन की बात का अनुसरण करते हैं और उन्होंने दैनिक भास्कर में नो नेगेटिव न्यूज का अभियान चला रखा है।

टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में पेड न्यूज की शुरूआत समीर जैन ने की। उधर दैनिक भास्कर ने नो पेड न्यूज का ऐलान किया। दैनिक भास्कर के विज्ञापनदाता इस बात को आज अच्छी तरह जानते हैं कि दैनिक भास्कर के नो पेड न्यूज का मतलब क्या है। अब तो अखबार के पाठक भी इस बात को समझने लगे है।

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 मुंबई में टाइम्स अॉफ इंडिया बिल्डिंग

समीर जैन को वर्जिन ग्रुुप के रिचर्ड ब्रान्सन की इस बात से प्रेरणा मिली थी कि वे तमाम तरह की नौटंकी इसलिए करते है कि इससे उनका विज्ञापन पर खर्च होने वाला लाखों पाउंड बच जाता है। रिचर्ड ब्रान्सन कैलेण्डर छापते हैं, हवाई जहाज से पैराशूट के जरिये कूदते है और तमाम तरह की नौटंकियां करते रहते है। ब्रान्सन ने कहा था कि जो काम मुफ्त में हो जाए, उसके लिए पैसे क्यों खर्चना?

समीर जैन ने यह बात पकड़ ली और निष्कर्ष निकाला कि अनेक कंपनियां बिना विज्ञापन दिए ही अखबारों में जगह पा जाती है। वे कोई खेल का आयोजन करते है और खेल पृष्ठ पर खबर छप जाती है। कोई संगीत का आयोजन करते है और उसकी रिपोर्टिंग हो जाती है। कोई आर्ट गैलेरी में शो प्रायोजित करता है और आर्ट शो का रिव्यू छप जाता है। इस तरह वे बिना हमें पैसा दिए हमारे प्रकाशनों का उपयोग कर लेते है।

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 इंदौर में दैनिक भास्कर का उदय यहीं से हुआ

समीर जैन के बारे में कहा जाता है कि वे केवल कुछ ही बड़े-बड़े आइडियाज पर काम करते है और उनकी छोटे भाई विनीत जैन सैकड़ों छोटे-छोटे आइडियाज पर काम करते हैं। इस तरह वे बड़े और छोटे आइडियाज को मिलाकर अपने साम्राज्य को और बड़ा बनाने के लिए कार्य करते रहते हैं।

दैनिक भास्कर के अग्रवाल बंधु भी कुछ इस तरह का काम करते हैं। रमेशचन्द्र अग्रवाल ग्रुुप के चेयरमैन के रूप में हैं, लेकिन पूरी बागडोर तीन भाइयों ने संभाल रखी है। सुधीर अग्रवाल संपादकीय के प्रमुख है। गिरीश विज्ञापन का काम देखते है और सबसे छोटे पवन अग्रवाल प्रिंटिंग और अन्य मामलों में दखल रखते हैं। एनजीओ टाइप के काम ज्योति सुधीर अग्रवाल देखती है।

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टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के किसी भी प्रकाशन में समीर जैन का फोटो शायद ही कभी छपा हो। इसी की तरह दैनिक भास्कर में सुधीर अग्रवाल के फोटो भी नहीं छपते। समीर जैन आमतौर पर मीडिया में आते ही नहीं है, क्योंकि उनको लगता है कि उनके मुंह से निकली कोई बात प्रतिस्पर्धी के लिए लाभ का सौदा बन सकती है।

टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने कुछ साल पहले केवल नाम मात्र की दर पर अखबार देना शुरू किया था। इसे इन्वीटेशन प्राइस कहा गया। इसका आइडिया समीर जैन को कोलकाता में चिड़ियाघर के करीब से गुुजरते हुए आया। उन्होंने देखा कि चिड़ियाघर के बाहर भारी भीड़ थी। पूछने पर पता चला कि हफ्ते में एक दिन चिड़ियाघर का टिकिट सस्ता होता है और गरीब लोग इसी दिन आना पसंद करते हैं। समीर जैन ने सोचा कि अगर टिकिट की कीमत घटाकर चिड़ियाघर भीड़ इकट्ठी कर सकता है, तो वे अखबार की कीमत कम करके अपना प्रसार क्यों नहीं बढ़ा सकते, इसके बाद उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया केवल एक रुपए में बेचना शुरू किया और फिर टाइम्स ऑफ इंडिया ने जो कुछ किया वह अपने ही पुराने रिकॉर्ड को तोड़ने का काम था।

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 टाइम्स अॉफ इंडिया के स्टाफ की 1898 की तस्वीर

दैनिक भास्कर ने भी इसी फॉर्मूले को अपनाया। उन्होंने एक ही अखबार के कई-कई तरह के एडिशन शुरू कर दिए, जिसकी कीमत एक-डेढ़ रुपए से लेकर पांच रुपए तक की थी, जो आदमी सस्ता अखबार लेना चाहता है, उसे सिटी भास्कर और डीबी स्टार के बिना सामान्य अखबार उपलब्ध कराया जाने लगा। इस तरह अखबार को ज्यादा पाठक मिलने लगे और उसी के भरोसे विज्ञापन की कीमतें भी बढ़ाई जाने लगी।

अतीत में देखे तो टाइम्स ऑफ इंडिया की हर बात की नकल भास्कर ने की है। दैनिक भास्कर के पूलआउट टाइम्स ऑफ इंडिया की तर्ज पर होते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने अखबार का आकार छोटा किया, तो दैनिक भास्कर भी छोटा हो गया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्लासिफाइड सेक्शन के कॉलम बढ़ाये, तो दैनिक भास्कर ने भी बढ़ा दिये। क्लासिफाइड के फोन्ट साइज टाइम्स ऑफ इंडिया ने घटाये, तो भास्कर ने भी घटा दिए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने प्रति कॉलम प्रति सेंटीमिटर की दर के बजाय प्रति वर्ग सेंटीमिटर के भाव से विज्ञापन छापना शुरू किया, तो दैनिक भास्कर ने भी इसे ही शुरू कर दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने विज्ञापन एजेंसियों को एड स्पेस थोक में बेचना शुरू किया, तो दैनिक भास्कर ने भी विज्ञापन एजेंसियों को सस्ते में एड स्पेस देना शुरू किया और शर्त रख दी कि मिनिमम ग्यारंटी दी जाए। इसके बाद एजेंसियां अपने क्लाइंट से मनमाना पैसा ले सकती थी। टाइम्स ऑफ इंडिया में विज्ञापन के लिए डायरेक्ट आने वाले लोगों को हतोत्साहित किया, तो दैनिक भास्कर भी इसी ढर्रे पर चल पड़ा। यहां विज्ञापन एजेंसियों को तो कमिशन दिया जाता है, लेकिन अगर क्लाइंट सीधा आ जाए, तो उसे कोई डिस्काउंट नहीं दिया जाता। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी विज्ञापन एजेंसियों को सम्मानित करने के लिए तरह-तरह के आयोजन शुरू किए और दैनिक भास्कर ने भी उसका अनुसरण करना शुरू कर दिया।

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टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुंबई मिरर शुरू किया और उसे लगभग फ्री में बांटना शुरू किया। डीबी स्टार भी उसी की प्रेरणा से बाजार में आया। टाइम्स ऑफ इंडिया में अपने दो या तीन अखबारों को मिलाकर उसकी कीमत का एक नया पैकेज बनाया। पाठकों ने उसे पसंद किया। दैनिक भास्कर के पास इतने अखबार अभी नहीं है, इसलिए वह यह नहीं कर पा रहा। दरअसल समाचार पत्र को प्रॉडक्ट कहने और मानने की शुरूआत समीर जैन ने ही की है, जिसे सुधीर अग्रवाल सहित दूसरे तमाम अखबार मालिकों ने अपनाया। इस तरह विचारधारा का प्रतिनिधि अखबार प्रॉडक्ट में तब्दील हो गया और उसके स्टॉफ को यह बात समझाई जाने लगी कि अखबार एक प्रॉडक्ट है और उसके कंटेन्ट सामान।

समीर जैन ने अपने पूर्वजों की तरह संपादकों को कभी सम्मान नहीं दिया। उनका बस चलता, तो वे संपादक को ही उठाकर कूड़ेदान में डाल देते। उनका साफ-साफ मानना है कि हर अखबार उसके मालिक के प्रतिनिधि है और उसी के लाभ के लिए उनका संचालन होता है। अगर कोई संपादक यह समझे कि वह अखबार का सर्वेसर्वा है, तो वह समझता रहे। इससे क्या फर्क पड़ता है। यूं भी संपादक अपने-आप को बुद्धि का महासागर समझते है और हाथी दांत के टॉवर पर चढ़े रहते हैं।

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समीर जैन के हाथों में आते ही टाइम्स ऑफ इंडिया के समूह के संपादकों की नौकरी परमानेंट जॉब की तरह नहीं रही। ताश के पत्तों की तरह संपादकों को फेटा जाता रहा। तुरूप के पत्तों की तरह संपादकों की स्थिति भी बदलती रही, जिस तरह तुरूप बदलती है, संपादक भी बदलते रहे। समीर जैन का बस चले और कानून इजाजत दे तो वह अखबार में संपादक का नाम ही नहीं छपने दे। जितने प्वाइंट साइज में अखबार में खबरें छपती है, उससे कहीं छोटे पांच-छह प्वाइंट में संपादक का नाम छापने की परंपरा समीर जैन ने डाल दी। यह इतना छोटा होता है कि बगैर खुर्दबीन के संपादक का नाम पढ़ा ही नहीं जा सकता। शुक्र है कि समीर जैन की नकल सुधीर अग्रवाल ने यहां नहीं की।

सुधीर अग्रवाल ने समीर जैन की जो अच्छी बातें अपनाई, वह यह कि भले ही संपादकों को पसंद न करते हो, उन्हें नौकरी से मत निकालो। निकालने की बजाय नई जिम्मेदारी देना फायदे का सौदा लगता है। सांप भी मर जाता है, लाठी भी सुरक्षित रहती है। इसमें कई संपादक खुद इस्तीफा दे देते है और जो नहीं दे पाते, नई चुनौती स्वीकार कर बंधुआ मजदूरी में जुट जाते है।

समीर जैन ने संपादक को बौद्धिक संपदा मानने के बजाय प्रबंधन की संपदा माना। इसकी नकल करने वालों में सुधीर अग्रवाल पहले नंबर पर रहे। कालांतर में यह परंपरा भारत के सभी अखबारों में डलती चली गई। अब संपादकों की जिम्मेदारी संपादकीय पन्ने तक सीमित नहीं है, अब संपादक की जिम्मेदारी हरेक खबर तक है। इसके अलावा संपादक का ही काम है कि वह ब्रांड बिल्डिंग करें। अखबार की मार्केटिंग मेंं प्रमुख भूमिका निभाए। मालिकों के लिए जनसंपर्क करें। अखबारों में सिमटकर रहने के बजाय इवेंट करने पर भी ध्यान दे। इसी परंपरा का नतीजा है कि आज सभी अखबार तरह-तरह के इवेंट करने में लगे रहते है। अब अखबार के संचालक केवल अखबार नहीं निकालते, वे प्रॉपर्टी फेयर करते हैं, शिक्षा के मेले लगाते है, गरबा आयोजन करते हैं, मैराथन करते-करवाते हैं, ब्यूटी कांटेस्ट और गायन वादन के कार्यक्रम भी करवाते हैं, क्रिकेट मैच, भजन-भंडारे और प्रवचनों के आयोजन भी अखबारों के झंडे तले होने लगे हैं।

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 टाइम्स अॉफ इंडिया का क्लासिफाइड बुकिंग अॉफिस

समीर जैन ने समाचार-पत्र जगत में संपादक के सम्मान के दायरे को तोड़फोड़ दिया। अब संपादक मालिक का कारकून बनकर रह गया। संपादक को मिलने वाले सारी ऊर्जा उसके मालिक की तरफ से प्रवाहित होती है। इसी ने संपादकों को अवसरवादी और काफी हद तक क्रूर बना दिया है। संपादक के लिए अब सिद्धांत प्रिय होना जरूरी नहीं, अवसरवादी होना जरूरी है। उसका काम है अपने मालिक की सनक को नीचे तक प्रवाहित करना। दुर्भाग्य से ये सारी बातें आमतौर पर पूरे समाचार-पत्र व्यवसाय पर लागू हो रही है।

समीर जैन अपने संपादकों को बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उनसे मिलने के लिए जो भी संपादक आता है, उसके लिए जरूरी है कि वह अपने साथ डायरी और पेन लेकर आए। समीर जैन से चर्चा में जो भी बातें हो, उसके नोट्स तैयार करें। अगर डायरी लिए बिना कोई संपादक समीर जैन से मिलने आता है, तो उसे झिड़की के साथ ही वहीं डायरी उपलब्ध करा दी जाती है। आमतौर पर अजंता-थ्री, स्पायरल बाइंडिंग, रंग कोई भी हो सकता है। समीर जैन ने संपादकों को बेइज्जत करने के जो तरीके रखे हैं, सुधीर अग्रवाल के तरीके अलग हैं। सुधीर अग्रवाल किसी संपादक को फोन करके कह सकते है कि शाम को पांच बजे हमारी मीटिंग है। शाम को पांच बजे वे कह सकते हैं कि हम पांच नहीं आठ बजे मिलेंगे। फिर रात को आठ बजे वे कह सकते हैं कि आठ नहीं 11 बजे मुलाकात होगी। रात को 11 बजे वह कह सकते है कि अखबार निकलने के बाद दो-ढाई बजे मिल लेंगे। अब वह संपादक सुबह से रात को दो बजे तक सुधीर अग्रवाल मिलने के ही चक्कर में पड़ा रहता है।

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 टाइम्स अॉफ इंडिया ग्रुप की चेयरमैन इंदु जैन, जिन्हें पद्म विभूषण सम्मान की घोषणा हुई है

इतना सब होने के बाद भी कई संपादक समीर जैन के गुणगान करने से नहीं चूकते। वे कहते हैं कि समीर जैन मेरे जीवन के सबसे अच्छे शिक्षक है। कभी भी वे सीधे-सीधे आदेश नहीं देते। कभी भी लंबी बातचीत नहीं करते, लेकिन अपनी बात इस तरह सामने रखते हैं कि उसे मानने में ही हमें फायदा नजर आता है। सुधीर अग्रवाल के साथ भी ऐसा ही है। कई संपादक उनके पांव-छूते है, उनसे बीस-बीस साल बड़े संपादक भी उन्हें भाई साहब कहते है और उनके इशारे पर कोई भी काम करने को राजी रहते हैं।

समीर जैन अपनी कंपनी के ब्रांड को स्थापित करने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने में भी कंजूसी नहीं करते। दैनिक भास्कर भी यहीं सब करता है। धोनी को पांच करोड़ रुपए देकर ब्रांड एंबेसेडर बनाना हो या कोई और आयोजन करना हो। दोनों के इरादे स्पष्ट हैं। अगर हम पांच करोड़ रुपए खर्च करके दस करोड़ कमा सकते है, तो खर्च करने में कंजूसी क्यों करें? लेकिन अगर सौ रूपए खर्च करके दो सौ रुपए नहीं कमा सकते, तो वहां एक पैसा भी खर्च नहीं किया जाएगा।

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 राज्यसभा में मनोनयन के इंतजार में भास्कर समूह के चेयरमैन रमेश चन्द्र अग्रवाल

बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी का ज्यादातर मुनाफा उसके अखबारों से है। टाइम्स ऑफ इंडिया, इकॉनॉमिक टाइम्स, नवभारत टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स और फिर दूसरे अखबार और पत्रिकाएं। रेडियो मिर्ची घाटे का सौदा है। भारत में कुल जितने अंग्रेजी दैनिक बिकते है, उसके 54 प्रतिशत केवल टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के है। टाइम्स ऑफ इंडिया दुनिया में बिकने वाला अंग्रेजी का सबसे बड़ा अखबार है। उसी की तर्ज पर दैनिक भास्कर दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दी अखबार होने का दावा करता है।

टीवी के आगमन के साथ ही टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने टेलीविजन की दुनिया में भी कदम रखा। भारत में हिन्दी न्यूज चैनल बहुत अच्ची तरह स्थापित हो चुके है, ऐसे में समीर जैन को अंग्रेजी समाचार चैनलों के भरोसे ही रहना पड़ा। दैनिक भास्कर ने भी अपनी शुरूआत केबल टीवी के जरिये की, लेकिन केबल व्यवसाय को संभालने में सुधीर अग्रवाल को महारथ नहीं थी। दूसरी बात यह कि केबल के धंधे में जितनी सिरफुटव्वल थी, उतना मुनाफा नहीं। इसलिए उन्होंने अपने धंधों को अन्य क्षेत्रों में मोड़ लिया। रेडियो मिर्ची की तर्ज पर सुधीर अग्रवाल ने भी रेड-एफएम की शुरूआत की। थोड़ा अंदर यह रहा कि रेडियो मिर्ची अपने प्रचार में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह का नाम नहीं लेता, जबकि दैनिक भास्कर का माय एफएम दैनिक भास्कर से अपने रिश्ते को छुपाने की कोशिश नहीं करता।

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 मुंबई की द ओल्ड लेडी अॉफ बोरीबंदर

अपने व्यवसाय के विस्तार के रूप में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने आमतौर पर मीडिया व्यवसाय को ही चुना। दैनिक भास्कर ने भी अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए हर क्षेत्र में कदम बढ़ाये। हिन्दी भाषी राज्यों में मीडिया व्यवसाय की अपनी सीमाएं है। इसीलिए दैनिक भास्कर हर क्षेत्र में घुस गया। स्कूल व्यवसाय, निर्माण, माइनिंग, पावर प्लांट, सोयाबीन एक्सट्रेशन, गरबा व्यवसाय और यहां तक कि एनजीओ के धंधे में भी।

टाइम्स ऑफ इंडिया ऑनलाइन न्यूज के मामले में सन 2009 में ही दुनिया का सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। उसकी पहुंच यूएस के न्यूयॉर्क टाइम्स और यूके के सन से ज्यादा हो चुकी थी। सातवें वर्ष भी टाइम्स ऑफ इंडिया का साम्राज्य दुनियाभर के ऑनलाइन न्यूज कारोबार में बरकरार है। इसी की नकल करने की कोशिश अब दैनिक भास्कर कर रहा है। एक हद तक दैनिक भास्कर इसमें कामयाब भी रहा है और हिन्दी भाषी पाठकों के सामने उसकी स्थिति सम्मानजनक है। कई पुराने खिलाड़ियों को उसने मात दे दी है। अब दैनिक भास्कर की नकल करते हुए हिन्दी के दर्जनों अखबार इसी शैली में आगे आ रहे है।

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ग्रॉफिक्स साभार mediaroots.com

 

 04 Feb 2016      03.00 PM

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