पदमश्री बावकौड़ी व्यवंâट कारंत भोपाल के रंगमंडल की नायिका विभा मिश्र को जलाने के लिए दोषी है या नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा। मगर इस कांड के बाद उनका नाम भी रामराव आदिक तथा जे.पी. पटनायक जैसों की सूची में आ गया है जो रंगकर्म से जुड़े लोगों के लिए कष्टकर है। कांरत करीब बीस साल से रंगमंच ये जुड़े हैं। वे बेहतरीन नाट्य निर्देशक, कलाकार और संगीतकार हैं।
बड़े-बड़े पद और पदवियां उन्होंने पाई मगर उन्होंने कभी अहंकार नहीं जताया। वे लोगों से बड़े दोस्ताना लहजे में मिलते। उनका सबसे बड़ा गुण हैं। संवेदनशीलता। और अपनी गलतियों पर पछताने की कारंत।
कारंत न तो मध्यप्रदेश में पैदा हुए और न ही वहां पढ़े-लिखे। मगर रंगमंडल के नाटकों को जो लोक संगीत और लोकशैली उन्होंने दी-वह अदभूत है। बुंदेलखंडी, निमाड़ी और मालवी लोकशैली उनके नाटकों में असली रूप लेकर आई। साथ ही वे यर्थाथवादी रंगमंच की कसौटी पर भी खरे उतरे। अपने नाटकों के पात्रों को गति और चर्चाओं के स्तर पर जीने के सही अवसर इन्होंने उपलब्ध कराए। उनका एक गुण या अवगुण यह रहा कि उन्होंने जिस नायिका को आगे बढ़ाया-वही नायिका रंगमंडल के लगभग सभी नाटकों में मुख्य किरदार निभाती रहे। चाहे वह नाटक ‘तीन बहनें’ हो या ‘महानिर्वाण’, ‘इंसाफ का घेरा’ हो या ‘आधे अधूरे’। कहना न होगा कि वह नायिका विभा मिश्र रही हैं।
रंगमंच के अन्य लोगों की तरह वे भी फिल्मी दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित रहे। शायद इसीलिए वे म.प्र. फिल्म निगम के अध्यक्ष भी बने थे। भोपाल में ‘रंगमंडल’ के गठन के बाद स्थानीय रंग मंडलियां प्राय: मुर्दा हो गई। कुछ को कारंत ने अपने यहां ले लिया। कई कलाकार बेकार हो गए और एक वरिष्ठ रंगकर्मी अपने पेट की खातिर कव्वालियों का आयोजन करने लगे।
लोगों की यह शिकायत रही कि ‘रंगमंडल’ जनता के पैसे को पानी की तरह बहा रहा है। रंगमंडल के नाटकों में फिल्मों की तरह भारी-भारी सेट बनाए जाने लगे। ‘मटिया बुर्ज’ नामक नाटक के लिए तो पक्का चबूतरा बनवाया गया। शराब व तामझाम पर भारी खर्च होने लगा। रंगमंडल के कलाकारों से कलाकारों की तरह कम और हम्मालों की तरह काम ज्यादा किया जाता रहा। जो लोग नाटक करते, वे ही मंच बनाते सामान ढोते दरी-फट्टा बिछाते। इससे कलाकारों में वुंâठा पैâल गई।
श्री कारंत इब्राहिम अलकाजी के शिष्य है, नगर नाटकों के मंचन में उन्होंने उनसे अलग शैली अपनाई। अल्काजी पाश्चात्य शैली के पीछे थे, मगर कारंत ने लोकशैली को चुना। अल्काजी के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से हटने के बाद कारंत ने उसमें नई जान डालने की कोशिश की। उन्होंने वहां की कार्यशैली और पाठ्यक्रम को बदला तथा ज्यादा से ज्यादा लोगों को नाटक पेश करने का मौका दिया। उनकी उदारता का नतीजा यह निकला कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय चरस पीने वालों का मुख्य अड्डा बन गया। उन्होंने खुले आम चरस पीने वालों को भी कभी नहीं रोका।
रंगमंच के बारे में कारंत के विचार प्रभावशाली है। वे मानते हैं कि नाटक ही एकमात्र माध़्यम है जो अपने दर्शक से संवाद कायम करता है। रंगकर्म वर्तमान काल का प्रतिनिधि है और उसकी सामयिकता कभी खत्म नहीं होगी। असली रंगकर्म हिन्दी और स्थानीय भाषाओं में ही संभव है। अंग्रेजी का रंगकर्म कभी भी रंग आन्दोलन का हिस्सा नहीं हो सकते।
कारंत मबलत: कन्नड़ भाषी हेै-मगर वे कर्नाटक में हिन्दी के प्रचारक रहे हैं। उन्होंने हिन्दी में ‘हमवदन’ नाटक को जिस खूबी से पेश किया है उसे गिरीश कर्नाड अपनी मातृभाषा कन्नड़ में इतनी खूबी से पेश नहीं कर पाए।
कारंत की पैदाइश १९२८ की है। वे बचपन से ही नाटकों में काम करते रहे हैं। उन्होंने हिन्दी में एम.ए. की डिग्री ली फिर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के ओंकारनाथ ठाकुर से हिन्दुस्तानी संगीत सीखा। उन्होंने दिल्ली के सरदार वल्लभभाई प्राथमिक विद्यालय में हिन्दी भी पढ़ाई और साथ-साथ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा एशियन थियेटर इंस्ट्यिूट से रंगकर्म में डिप्लोमा पाया। उन्होंने हिन्दी और कन्नड़ के अलावा पंजाबी, गुजराती और संस्कृत में भी नाटकों का मंचन किया। वे पूरे युरोप का सांस्कृतिक दौरा कर चुके हैं। १९८० में उन्होंने ‘हयवदन’ का मंचन आस्ट्रेलिया में किाय। ‘घासीराम कोतवाल’ का मंचन उन्होेंन म.प्र. के छोटे-छोटे गांवों में किया, जो खूब लोकप्रिय हुआ। १९७७ से १९८१ तक वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्राचार्य फिर म.प्र. फिल्म विकास निगम के अध्यक्ष तथा रंगमंडल के निर्देशक बन गए। १९८१ में उन्हें पदमश्री की उपाधि दी गई। उन्होंने ‘चोमना टुडी’ नामक कन्नड़ फिल्म का निर्देशन भी किया था।
कारंत की उम्र ५८ साल है। वे शादीशुदा हैं। उनकी पत्नी प्रेमा फिल्म निर्देशक है।
प्रकाश हिन्दुस्तानी