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फिरंगी एक महापकाऊ फिल्म है और 160 मिनिट तक उसे झेल पाना कोई मजाक बात नहीं। हंसाने की कोशिश में यह फिल्म कामयाब नहीं हो पाई। 1921 की कहानी, जिसमें अंग्रेज, राजा, शोषित गांव वाले और गांधीजी के ऐतिहासिक संदर्भ ठुंसे गए है। समझ ही नहीं आता कि यह कॉमेडी फिल्म है कि रामांटिक? ठंडे तेल में जीरे की तरह देशभक्ति का तड़का भी है, जो कहीं से भी देशभक्ति नहीं लगता।
उम्र के 40वें साल में विद्या बालन ने ‘साड़ी वाली भाभी आरजे’ का रोल ठीक ही किया है। डर्टी पिक्चर और बेगम जान से अलग हटकर इसमें विद्या बालन का रोल ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की आरजे जैसा है। मुन्ना भाई में वह गुड मार्निंग मुंबई कहती थी, इसमें साड़ी वाली सेक्सी भाभी के अंदाज में हैलो कहती है, रात के शो में अजीबो-गरीब टेलीफोन कॉल का जवाब देती है और गाने भी सुनवाती है। साफ-सुथरी कॉमेडी फिल्म है, जिसके निर्माता और निर्देशक सुरेश त्रिवेणी है, जो विज्ञापन फिल्में बनाते हैं। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार मुंबई के सुदूर विरार उपनगर में रहता है। आय का एक मात्र स्त्रोत सुलोचना के पति अशोक की 40 हजार रुपए की तनख्वाह है। एक बेटा स्कूल जाता है। 3 बार 12वीं में फेल सुलोचना किसी तरह अपने परिवार की गाड़ी हंसते-खेलते चलाती है। कभी वह निंबू दौड़ जीतती है, कभी अंताक्षरी। बक-बक करने वाली सुलोचना किसी तरह एक एफएम रेडियो में आरजे बन जाती है।
तनुजा चंद्रा की ‘करीब-करीब सिंगल’ करीब-करीब ओके है। महानगरीय दर्शकों के लिए बनाई गई है। रोमांटिक कहानी है। इंटरवल के बाद धीमी गति में झेलनी पड़ती है। इरफान खान ने 3-4 फिल्मों के डायलाग इसी फिल्म में झिलवा दिए है। झेल सको तो झेल लो के अंदाज में। परिपक्व हो चुके युवाओं का रोमांस है, जहां हीरोइन 35 साल की है और हीरो भी इससे ज्यादा। हीरो को तीन बार मोहब्बत करने का अनुभव है और हीरोइन को एक बार शादी का। सैनिक पति की मौत के बाद हीरोइन स्टेपनी आंटी बनकर कभी किसी के बच्चों को शॉपिंग कराती हैं, तो कभी किसी की बिल्ली की केयर टेकर बनती हैं।
‘रांची डायरीज’ को बकवास कहना फिल्म के साथ नाइंसाफी होगी, क्योंकि यह फिल्म बकवास नहीं महाबकवास है। पूरी फिल्म में कोई भी ऐसी चीज नहीं है, जिसकी तारीफ की जा सके। कहानी बकवास, पटकथा बकवास, अभिनय बकवास, निर्देशन बकवास, संगीत बकवास, एक्शन बकवास, इमोशन बकवास केवल बकवास... बकवास... बकवास..।
रेड चिलीस, धर्मा प्रोडक्शन्स और बीआर स्टुडियो ने मिलकर इत्तेफाक बनाई है। बीआर चोपड़ा के पोते अभय चोपड़ा ने निर्देशन किया है। इतने इत्तेफाक के बाद भी अगर यह फिल्म पसंद आए, तो यह इत्तेफाक ही होगा। 1969 में आई राजेश खन्ना और नंदा की इत्तेफाक की कहानी बताई जा रही है, लेकिन इसमें और भी ट्विस्ट जोड़ दिए गए है। पुलिस पर पड़ रहे दबाव और अपराधी को सजा दिलाने के बजाय मामला सुलटाने का प्रयास इस फिल्म में दिखाया गया है। अपराधी कभी किस्मत से बच जाता है, कभी झूठ से और कभी इत्तेफाक से। सिद्धार्थ मल्होत्रा और सोनाक्षी सिन्हा की यह फिल्म जरूर है, लेकिन बाजी मार ले गए अक्षय खन्ना।
कहानी शहरी है, लेकिन शानदार है। इमोशनल ड्रामा है, जो पिता-पुत्र के बीच चलता है और पति-पत्नी के भी। शेफ है, तो खाना भी है और खाना बनाने की कला भी। सैफ अली खान ने जैसी एक्टिंग की है, उससे लगता है कि वे खाना भी अच्छा ही बनाते होंगे। कहा जाता है कि अच्छा खाना बनाना भी एक तरह की कला है और जो शख्स अच्छा खाना बनाता हो, वह दुनिया का कोई भी काम आसानी से कर सकता है, क्योंकि अच्छा खाना बनाने के लिए जिस धैर्य, समझदारी और अनुभव की जरूरत होती है, वह हर किसी के बस की बात नहीं है। फिल्म के निर्माताओं में एक नाम ‘बांद्रा वेस्ट प्रोडक्शन’ देखकर मुझ इंदौरी के मन में सवाल उठा कि काश! यह छप्पन दुकान प्रोडक्शन या सराफा प्रोडक्शन की फिल्म होती।